Braj Yatra 2

निधुवन(निधिवन)

निधु शब्द का अर्थ सुरत क्रीड़ा से है । गोविन्दलीलामृत आदि ग्रंथों में निधुवन में सरत क्रीड़ा का सरस वर्णन है । उन ग्रंथों के अनुसार केलि विलास के कारण निशांत काल में निधुवन के केलिकुञ्ज में ही युगल का शयन विलास होता है । प्रभात निकट देखकर वृन्दादेवी घबड़ाकर शुक-सारी, मयूर, कोकिल, भृंग आदि को आदेश देती हैं कि वे अपने कलरव के गुञ्जार से युगल-किशोर-किशोरी को जगावें । इस निशांत लीला का रागानुगी भक्त विशेष कर रुपानुगी रसिक महानुभाव नाम संकीर्तन के माध्यम से अपने ह्रदय में रसास्वादन करते हैं ।
श्रीपाद विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने स्वरचित स्वप्नविलास नामक छोटे-से ग्रन्थ में इसका बड़ा ही सरस वर्णन किया है ।

प्रसंग-किसी एक रात के अंतिम भाग में श्री राधा कृष्ण युगल निधुवन के केलिकुञ्ज में शयन कर रहे थे । श्री वृषभानु नन्दिनी ने अकस्मात् एक अद्भुत मनोहर स्वप्न देखा । जगनेपर प्राण वल्लभ को जगाकर कहने लगीं-प्रियतम मैंने अभी-अभी एक अद्भुत स्वप्न देखा । उस स्वप्न में मैंने यामुना की भाँति एक अनुपम नदी देखी । उस नदी के तट पर यमुना पुलिन की भाँति एक परम मनोहर पुलिन देखा । उस पुलिन में (उपवन में) वृन्दावन की भाँति अद्भुत नृत्य-गीत पूर्ण विनोद करते हुए एक अद्भुत गौरकान्ति विशिष्ट किशोर युवक को देखा । वह भावावेश में मृदंग और करताल के स्वर पर नृत्य में विभोर हो रहा था । वह भावाविष्ट गौर किशोर हा कृष्ण ! हा कृष्ण ! और कभी हा राधे ! हा राधे ! तुम कहाँ हो ? रोदनपूर्वक ऐसा उच्चारण करता हुआ कभी भूमिपर लोट रहा था, कभी मूर्छित हो रहा था तथा तृण से ब्रह्मा तक सारे जगत में अपने भावों को सञ्चारित करा रहा था ।
प्रियतम ! मैं उसे देखकर सोचने लगी, यह गौरवर्ण का किशोर कौन है ? क्या सदा सर्वदा हा कृष्ण ! हा कृष्ण ! कहकर रोनेवाली मैं ही वह गौर किशोर हूँ ? अथवा हा राधे ! हा राधे ! तुम कहाँ हो ? इस प्रकार उच्च स्वर से रोदन करनेवाले मेरे प्राण प्रियतम आप श्री कृष्ण ही वह गौर किशोर हैं । श्री कृष्ण बोले-हे प्रियतमे ! मैंने तुम्हे समय-समयपर नारायण आदि विविध स्वरूपों का दर्शन कराया है । किन्तु उन्हें दर्शन कर तुम्हें कोई आश्चर्य नहीं हुआ। किन्तु तुम्हारी बुद्धि में भ्रम उत्पन्न करानेवाला वह गौरवर्ण वाला किशोर कौन है ? मैं नहीं कह सकता । ऐसा कहकर वे मुस्कुराने लगे ।

राधिकाजी कहने लगीं- प्राणवल्लभ ! अब मैं समझ गई कि वह गौर स्वरुप आप स्वयं ही हैं । अन्यथा मुझे इस प्रकार कोई भी मोहित नहीं कर सकता । अनन्तर कृष्ण अपनी कौस्तुभ मणि में श्रीराधिकाजी को स्वप्न दृष्ट सभी दृश्यों को साक्षात की भाँति दिखलाने लगे । श्रीमती राधिकाजी दृश्यों को देखकर कहने लगीं कि आपके बाल्य काल में नन्दबाबा के सामने सर्वज्ञ गर्गऋषि ने कहा था कि आने वाले कलियुग की प्रथम सन्ध्या में आपका यह पुत्र पीतवर्ण गौरांग के रूप में प्रकटित होगा । गर्गऋषि की भविष्य वाणी कभी भी मिथ्या नहीं हो सकती । अतः मेरा स्वप्न सत्य है और वह स्वप्न-दृष्ट गौर किशोर आप ही हैं । यह सुनकर श्री कृष्ण ने कहा प्राणेश्वरी ! मैं तुम्हारे भावों का आस्वादन करनेके लिए तुम्हारी गौर अंगकान्ति तथा हृदयगत भावों को ग्रहणकर गौरांग स्वरुप में अवतीर्ण होऊँगा । तुम्हारे इन सरस भावों का स्वयं आस्वादन करूँगा तथा साथ ही हरिनाम संकीर्तन के माध्यम से रागमार्ग भक्ति का प्रचार करूँगा । यथार्थ में अपने दुर्लभ प्रेमको वितरण करने के लिए ही मैं महावदान्य गौरांग के रूप में अवतीर्ण होऊँगा । तुम सभी मेरे परिकरों के रूप में मेरे साथ ही भूतल पे अवतीर्ण होओगी ।
गोपियों ने श्री कृष्ण की वंशी चुराकर राधारानी को दी थी और उन्हें ब्रज का राजा बनाया था । इसलिए निधुवन में श्रीमती राधिका राजवेश में सुसज्जित होकर राज सिंहासन पर बैठीं । श्रीकृष्ण कोतवाल वेश धारणकर कुञ्ज के द्वार पर देश की रक्षा करने लगे। इसको राई-राजलीला कहते हैं । गौड़ीय पद्कर्ताओं ने इस लीला का बड़ा ही मनोरम चित्रण किया है । इसके द्वारा श्री राधा-कृष्ण युगल ने श्रीगौर-अवतार की सुचना दी । निधिवन में ही श्याम के साथ गोपियों ने होली खेली थी, प्राचीन वृन्दावन की स्मृति दिलाने वाले ये ही दो वन निधिवन और सेवाकुंज (निकुंज वन ) हैं । प्राचीन वृन्दावन ऐसा ही था । आज भी रात्रि में श्री प्रिया-प्रियतम यहाँ पर रास रचाते हैं। जिस प्रकार सेवाकुञ्ज में ललिता कुण्ड है, उसी प्रकार से निधुवन में विशाखा कुण्ड है । यहाँ भी प्रियसखी विशाखा की प्यास बुझाने के लिए श्रीराधाविहरीजी जी ने अपने वेणु से कुण्ड प्रकाश कर उसके मीठे, सुस्वादु जल से विशाखा आदि सखियों की प्यास बुझाई थी । कालान्तर में यहीं पर श्री राधारानी की अष्ट सखियों में प्रधान श्री ललिता सखी जी के अवतार रसिक संत संगीत शिरोमणि श्री स्वामी हरिदास जी महाराज नित्य यमुना में स्नान करके प्रिया-प्रियतम जी की साधना किया करते थे और यहीं पर उन्होंने अपनी संगीत साधना के बल पर श्री बाँके बिहारी जी महारज को प्रकट कर दिखाया था ।
"माई री सहज जोरी प्रकट भई जु रंग की गौर श्याम धन-दामिनी जैसे ।
प्रथम हूँ हुती, अबहूँ आगे हूँ रहिहैं, न टरिहैं तैंसे ।।
अंग-अंग की उजराई, सुधराई, चतुराई, सुन्दरता ऐसे।
श्रीहरिदास के स्वामी श्यामा-कुंजबिहारी सम वैस वैसे ।।"
सम्राट अकबर ने तानसेन के साथ यहाँ स्वामी हरिदास जी महारज के दर्शन किये थे, और स्वामी श्री हरिदास जी ने अकबर के अहंकार को भंग किया था।
स्वामी हरिदास जी श्री बिहारी जी को अपने स्वरचित पदों के द्वारा वीणा यंत्र पर मधुर गायन कर प्रसन्न करते थे तथा गायन करते हुए ऐसे तन्मय हो जाते कि उन्हें तन-मन की सुध नहीं रहती। प्रसिद्ध बैजूबावरा और तानसेन इन्हीं के शिष्य थे। अपने सभारत्न तानसेन के मुख से स्वामी हरिदास जी की प्रशंसा सुनकर सम्राट अकबर इनकी संगीत कला का रसास्वादन करना चाहता था। किन्तु, स्वामी हरिदासजी का यह दृढ़ निश्चय था कि अपने ठाकुर जी के अतिरिक्त वे किसी का भी मनोरंजन नहीं करेंगे।
एक समय सम्राट अकबर वेश बदलकर साधारण व्यक्ति की भाँति तानसेन के साथ निधुवन में स्वामी हरिदास की कुटी में उपस्थित हुआ। संगीतज्ञ तानसेन ने जानबूझकर अपनी वीणा लेकर एक मधुर पद का गायन किया। अकबर तानसेन का गायन सुनकर मुग्ध हो गया। इतने में स्वामी हरिदास जी तानसेन के हाथ से वीणा लेकर स्वयं उस पद का गायन करते हुए तानसेन की त्रुटियों की ओर इंगित करने लगे। उनका गायन इतना मधुर और आकर्षक था कि वन की हिरणियाँ और पशु-पक्षी भी वहाँ उपस्थित होकर मौन भाव से श्रवण करने लगे। सम्राट अकबर के विस्मय का ठिकाना नहीं रहा। वे प्रसन्न होकर स्वामी हरिदास को कुछ भेंट करना चाहते थे, किन्तु बुद्धिमान तानसेन ने इशारे से इसके लिए सम्राट को निषेध कर दिया अन्यथा हरिदास जी का रूप ही कुछ बदल गया होता। इन महापुरुष की समाधि निधुवन में अभी भी वर्तमान है।
श्री स्वामी हरिदास जी की समाधि
 
   
 यहाँ श्री स्वामी हरिदास जी की समाधि, रंग महल, बाँके बिहारी जी का प्राकट्य स्थल, राधा रानी बंशी चोर, विशाखा कुण्ड, विठलविपुल और जगन्नाथ स्वामी का समाधि मन्दिर दर्शनीय हैं। इसके दर्शन करने से मन को प्रगाढ़ शांति मिलती है और मनुष्य अपने को धन्य समझता है ।
शाह जी का मन्दिर:

यह टेड़े खम्भे वाले मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। मन्दिर का निर्माण लखनऊ के कुन्दनलाल शाह जी ने अपने पिता शाह विहारीलाल के लिए 1860 ई॰ में शुरू करवाया था, और ये मन्दिर आठ साल में बनके तैयार हुआ था । शाह विहारीलाल भक्त प्रवृत्ति के थे, और उनकी आस्था श्री राधा रमण जी में थी । वे अपने ठाकुर श्री राधा रमण के सामने गोपी वेश बनाकर नृत्य-गान किया करते थे । जिनका चित्र आज भी ठाकुर श्री राधारमण के सामने बना हुआ है ।
मन्दिर सफ़ेद संगमरमर का बना हुआ है । उस समय की लगत 10 लाख रुपया है । इस मन्दिर की विशेषता यह है की मंदिर में दो शैलियों का मिश्रित प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है। एक रोमन-इटेलियन शैली, दूसरी लखनवी नवाबी अंदाज की शैली। मंदिर के 15 फुट ऊंचे टेढ़े खंभों का प्रयोग एवं मुंडेरों पर रोमन शैली में बनायी गयी सखियों की मूर्तियां विदेशी प्रभाव दर्शाती हैं। वलयाकार टेढ़े खंभों की विशेषता यह है कि ये संगमरमर के एक ही टुकड़े को काटकर बनाए गए हैं। दूसरी मंजिल की मुंडेरों पर मध्य को छोड़ दोनों ओर सात-सात सखियों की मूतियां हैं जो विभिन्न कार्यों में संलग्न हैं। सबसे ऊपर मध्य में लगभग 10 फुट की दो मछलियों की आकृति को तिरछा करके बनाया गया है, उनके मध्य गोल अंडाकर आकृति में एक सखी की मूर्ति वाद्य बजाते हुए है। ठाकुर राधा रमण जी के दर्शनों हेतु भक्त जिस विशाल कमरे में प्रवेश करते हैं वही ऋतुराज भवन है जिसे वसंती कमरा भी कहते हैं। इस भवन की दीवारों पर विभिन्न प्रकार के भित्ति चित्र बने हैं जो अपनी शैली में अद्वितीय हैं। इसके अतिरिक्त दाईं ओर के टेढ़े खंभों वाले बरामदे में भी अनेक मुद्राएं दर्शाती पाषाण की सखियों की मूर्तियां भित्ति चित्रों के रूप में बनी हैं जिनमें जिस रंग की आवश्यकता थी उसी रंग के पत्थर का प्रयोग किया गया है। एक भित्ति चित्र में एक सखी द्वारा लखनऊ के पूर्व नवाब वाजिदअली शाह की टोपी पहने दिखाई पडऩा मुस्लिम-हिन्दू सद्भाव एवं सौहार्द का जीवन्त उदाहरण है। एक अन्य भित्ति चित्र में राधा जी को यमुना स्नान के पश्चात केशों से पानी निचोड़ते दिखाया गया है तथा टपकते हुए जल बिंदुओं को भगवान कृष्ण, मोर का रूप धारण कर मुख ऊपर करके पान कर रहे हैं।
मंदिर की एक विचित्र बात यह है कि वसंती कमरे के बाहर एवं खंभों के मध्य फर्श पर संस्थापकों के परिवारजनों के तीन चित्र मंदिर निर्माण के समय से ही पत्थर काटकर बने हुए हैं। बताते हैं कि परिवारजनों की यह इच्छा थी कि मंदिर के दर्शन करने वाले श्रद्धालुओं के साथ आई ब्रजधूलि (रज) उनके ऊपर पड़ती रहे, जिससे उनका ïउद्धार होता रहे। विशेष रूप से वर्ष में दो बार बंसती कमरे में ठाकुर राधा रमण लाल के दर्शन मिलना बड़े ही सौभाग्य की बात है। वसंती कमरे की आभा ही निराली है। इसमें सुसज्जित विभिन्न रंगों वाले बेशकीमती झाड़-फानूस, स्वर्णमयी दीवार, विशाल गोलाकार छत पर चंदोवा जैसी पच्चीकारी, ऊपर चारों ओर से झांकती बारह विभिन्न मुद्राओं में मानवाकार रोमन शैली की सखियां कमरे की शोभा को चार चांद लगा रहे हैं। वसंती कमरे के बीचोंबीच फव्वारों के सामने स्वर्ण जडि़त सिंहासन पर ठाकुर जी के विग्रह का जब श्रद्धालु दर्शन करता है तब ठगा सा रह जाता है। तभी तो वसंत का प्रतीक बन गया है वृंदावन का शाह जी का मंदिर। वसंत पंचमी के अतिरिक्त श्रावण शुक्ल त्रयोदशी एवं चतुर्दशी को भी दो दिन के लिए वसंती कमरा खोला जाता है।
राधा दामोदर मन्दिर:


श्रीजीव प्रकटीकृतं, राधालिंगित विग्रहम ।
राधादामोदरं वन्दे श्रीजीव जीवितेश्वरम् ।।
श्री राधा दामोदर मन्दिर श्री ब्रह्ममाध्वगौड़ीय सम्प्रदाए का अत्यंत प्राचीन मन्दिर है । श्री रुप गोस्वामीजी सेवाकुञ्ज के अन्तर्गत यहीं भजन कुटी में वास करते थे । यहीं पर तत्कालीन गोस्वामीगण एवं भक्तजन सम्मिलित होकर इष्टगोष्टी करते थे । तथा श्रीरघुनाथभट्टजी अपने मधुर कंठ से उस वैष्णव सभा में श्रीमद्भागवत की व्याख्या करते । यहींपर श्री रूप गोस्वामी ने श्री भक्तिरसामृतसिन्धु, उज्जवलनीलमणि एवं अन्यान्य भक्ति ग्रंथों का संकलन किया  । सन् 1541 में भक्तिरसामृतसिन्धु की रचना समाप्त हुई। इसके एक वर्ष बाद सन् 1542 में रूप गोस्वामी ने जीव गोस्वामी को पृथक् रूप से सेवा करने के लिए राधादामोदर की जुगलमूर्ति प्रदान की।
श्री जीव गोस्वामी वृन्दावन में अपने गुरु श्री रूप गोस्वामी के अनुगत होकर भजन में तल्लीन रहते थे । एक समय उनके हृदय में ठाकुर श्री दामोदर जी का विरह भाव जाग उठा । इस भाव में आतुर रहने के कारण वे क्षीण-काय (दुबले) होने लगे । किसी भी कार्य में उनका मन नहीं लगता था, हमेशा नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहती रहती थी । भगवान श्री कृष्ण के दर्शन की लालसा दृढ़तर होने लगी । ठाकुरजी से जीव की यह दशा सहन नहीं हुई और उन्होंने अदभुत ढंग से कृपा की ।
एक समय श्री रूप गोस्वामी शयन कर कर रहे थे । उसी समय स्वप्न में उनको श्री कृष्ण के दर्शन हुए कितना अदभुत रूप था प्रभु का । प्रभु हँसते हुए श्री रूप गोस्वामी से बोले - " तुम मेरे दामोदर विग्रह को अपने हाथों से बनाओ ।" श्री रूप गोस्वामी बोले - " मैं आपके दामोदर विग्रह को कैसे बना सकता हूँ ? मैंने कभी भी अपने हाथों से छोटे से पत्थर को नहीं तोड़ा है तो फिर कैसे आपके सुन्दर श्री विग्रह दामोदर का मैं निर्माण कर सकता हूँ ?" प्रभु ने कहा कि जैसे भी हो, तुम मेरे विग्रह का अपने हाथों से ही निर्माण करो, कारण - मैं तुम्हारे हाथों से ही प्रकट होना चाहता हूँ । मेरे उस दामोदर विग्रह का निर्माण करके तुम अपने प्रिय शिष्य एवं मेरे अति प्रिय भक्त जीव को प्रदान करना । उसके द्वारा ही मैं आराधित और पूजित होना चाहता हूँ । वह मेरा अति ही प्रिय भक्त है । प्रभु ने अपने दामोदर विग्रह को किस प्रकार और किस रूप में निर्माण करना है, श्री रूप गोस्वामी को बताया और उस विग्रह के स्वप्न में ही दर्शन कराये तत्पश्चात् श्री रूप गोस्वामीजी की निद्रा भंग हो गयी ।
श्री रूप गोस्वामी को यह भली-भाँति बोध हो गया की प्रभु भक्तों के ऊपर कृपा करने के लिए ही प्रकट होते हैं । अगर वो स्वयं प्रकट होना चाहते हैं तो उनको कौन रोक सकता है ? श्री रूप गोस्वामी जी समझ गये की वह तो केवल निमित्त मात्र हैं । वास्तविकता तो यह है कि प्रभु स्वयं ही प्रकट होंगे । इस प्रकार विचार करके वे यमुना जी में स्नान करने गये । स्नान करके आते वक्त उन्हें एक काले रंग का सुलक्षण शिलाखंड प्राप्त हुआ। उस शिलाखंड को लाकर वे मूर्ति निर्माण में लग गये । मूर्ति निर्माण कार्य बड़ा अदभुत था । भगवान दामोदर का प्रकट कार्य माघ शुक्ला दशमी को पूरा हुआ उस दिन समस्त भक्त्वृन्दों एवं गोस्वामीगणों के सामने श्री रूप गोस्वामी जी ने अपने शिष्य श्री जीव को भगवान दामोदर का विग्रह सेवा हेतु प्रदान किया । इस पावन दिवस को श्री राधा दामोदर मन्दिर में सिंहासन यात्रा के रूप में मनाया जाता है । श्री रूप गोस्वामी ने ठाकुरजी को श्री सिंहासन पर विराजमान कराया एवं समस्त वैष्णवजनों ने संकीर्तन आरंभ किया जो कई दिनों तक निरंतर चलता रहा ।
भक्तिरत्नाकर में उद्घृत साधन दीपिका के एक श्लोक में इसका उल्लेख इस प्रकार है-
राधादामोदरो देव: श्रीरूपेण प्रतिष्ठित:।
जीवगोस्वामिने दत्त: श्रीरूपेण कृपान्धिना॥
अर्थात् कृपा के सागर श्रीरूप गोस्वामी ने श्री राधा दामोदर देव को प्रकट कर सेवार्थ जीव गोस्वामी को प्रदान किया। भक्तिरत्नाकर में यह भी उल्लेख है कि राधादामोमर ने स्वप्न में रूप गोस्वामी को उन्हें जीव गोस्वामी को समर्पण करने की आज्ञा दी थी। रूप गोस्वामी ने स्वप्न में देखी मूर्ति के समान ही मूर्ति तैयार करवा कर जीव को दी थी। इससे स्पष्ट है कि राधादामोदर स्वयं ही जीव गोस्वामी की प्रेम-सेवा के लोभ से उनके पास आये थे। तभी वे उनसे तरहां-तरहां के खाद्य माँगते थे और जीव उन्हें खाते देखते थे-
मध्ये मध्ये भक्ष्य द्रव्य मागे श्रीजीवेरे। श्रीजीव देखये प्रभु भुजे जे प्रकारे॥
एक बार उन्होंने जीव गोस्वामी को बुला कर हंस-हंस कर वंशी बजाते हुए अपने भुवन मोहन रूप के दर्शन दिये उसे देख जीव मूर्च्छित हो गये। चेतना आने पर उनके हृदय में आनन्द समा नहीं रहा था और दोनों नेत्रों से बहती अश्रुधार उनके वक्ष को भिगो रही थी-
एक दिन बाजाय वांशी हाँसिया हाँसिया।
श्रीजीवे कहये-"मोरे देखह आसिया॥"
कैशोर बयस, वेश भुवन मोहन।
देखितेइ श्रीजीव हइल अचेतन॥
चेतन पाइया हिया आनन्दे उथले।
भासये दीघल टूटी नयनेर जले॥
श्री राधारानी का प्राकट्य
श्री राधादामोदर मन्दिर में श्री राधारानी और ललिता सखी क्रमशः ठा० श्री दामोदर जी के बाँये और दाँये भाग में शोभा प्राप्त करती हैं । श्री राधारानी और श्री ललिता सखी की मूर्ति के अविर्भाव के विषय में एक अति ही सुन्दर और रोचक कथा है । ये कथा वर्तमान आचार्य प्रवर एवं सेवायत आचार्य श्रीनिर्मलचन्द्र गोस्वामी 'पूज्य महाराश्री' और उनके पूर्वजों के हस्तलिखित इतिहास के अनुसार वर्णन की जा रही है :-
बंगाल में एक केवट मछली पकड़ रहा था, उसी समय उसके जाल में दो बड़ी मूर्ति आ गयीं । उसने उन मूर्तियों को राजा को दे दिया । रात्रि में राजा को स्वप्न आया कि वह इन मूर्तियों को वृन्दावन के अन्यन्य रसिक श्री जीव गोस्वामी के पास भेज दे । राजा ने स्वप्नानुसार स्वयं वृन्दावन आकर इन दोनों विग्रहों को श्री जीव गोस्वामी को दे दिया । श्री जीव गोस्वामी दोनों विग्रहों को प्राप्त करने के उपरांत अति प्रसन्न हुए परन्तु कौन सा विग्रह किसका है, ये पहचान नहीं पाए । तत्पश्चात रात्रि में उनको श्री राधारानी जी ने स्वप्न देकर अपने विग्रह के विषय में परिचय दिया । स्वप्न के अनुसार ही श्री जीव गोस्वामी श्री राधारानी जी के विग्रह को बाँई और ललिता सखी के विग्रह को दाँई ओर रखकर सेवा पूजा करने लगे ।
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संवत 1542 में माघ शुक्ल दशमी तिथि में श्री राधा दामोदर जी कि स्थापना हुई । औरंगजेब के आतंक से कुछ समय के लिए श्री राधा दामोदर जी जयपुर में विराजमान रहे एवं स्थिति ठीक होने पर सं 1803 ई० को पुनः वृन्दावन पधारे एवं तबसे ये यहीं पर विराजमान हैं । तत्पश्चात जयपुर में श्री राधादामोदर मन्दिर में प्रतिभूत स्वरुप विराजमान है । वर्तमान समय में श्री राधादामोदर मन्दिर के गर्भगृह में श्री जीव गोस्वामी जी के सेवित श्री राधा दामोदर जी के साथ सिंहासन पर श्री चैतन्य चरितामृत ग्रन्थ के रचियता श्री कृष्ण दास कविराज गोस्वामी जी के श्री राधावृन्दावनचन्द्र , षड्गोस्वामी जी से पहले वृन्दावन पधारे श्री भूगर्भ गोस्वामीजी के सेवित श्री राधा छैलचिकनिया जी महाराज और गीत गोविन्द ग्रन्थ के रचियता श्री जयदेव गोस्वामीजी के श्री राधामाधव जी महाराज के विग्रह विराजमान हैं। इसके अतिरिक्त श्री सनातन गोस्वामी को भगवान श्री कृष्ण जी द्वारा प्रदत्त " श्री गिरिराज चरण शिला " एवं गौर निताई के श्री विग्रह विराजमान हैं । यह मन्दिर श्रृंगार वट के निकट यमुना के समीप ही है । मन्दिर के उत्तर भाग में एक प्राचीन इमली वृक्ष के नीचे श्री रूप गोस्वामीजी कि समाधि है । उसके सामने उनकी भजन कुटीर है और साथ ही श्री जीव गोस्वामी जी की पाद प्रक्षालन स्थली है जहाँ की रज का नित्य सेवन करने से प्रेमरूपी पंचम-पुरुषार्थ की प्राप्ति होती है और जनम-मृत्यु आदि के चक्र से मुक्ति की प्राप्ति होती है । मन्दिर के दक्षिण पार्श्व में श्री जीवगोस्वामी तथा श्री कृष्णदास गोस्वामी की समाधियाँ प्रतिष्ठित हैं। श्री जीव गोस्वामी संस्कृत के प्रकांड विद्वान् थे । उन्होंने षट्सन्दर्भ, वैष्णवतोषिणी, विदग्ध माधव आदि अनेक ग्रंथों कि रचना की । इस मन्दिर में श्री भूगर्भ गोस्वामी की मूल समाधी भी है ।
ISKCON के संस्थापक श्री प्रभुपाद जी की भजन कुटीर भी यहीं पर स्थित है इसी दिव्य स्थल पर उन्होंने श्रीमद् भागवत के साथ साथ अन्य ग्रंथों का अंग्रेजी अनुवाद किया था और तत्कालीन सेवाधिकारी आचार्य श्री गोराचाँद गोस्वामीजी महाराज " पूज्य आचार्यश्री " से नित्य हरिचर्चा तथा श्री रूप गोस्वामीजी से प्राप्त अदृश्य शक्ति का वर्णन भी किया करते थे । भारत व्यापी समस्त गौड़ीय मठ के संस्थापक श्री भक्ति सिधांत सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद व उनके अनुगत अन्यान्य वैष्णवों की पुष्प समाधी मन्दिर भी यहीं पर स्थापित हैं ।
मन्दिर में गोवर्धन शिला के भी दर्शन हैं, जो वट-पत्र के आकार की हैं । जिनके बारे में कहा जाता है कि " सनातन गोस्वामी जी गोवर्धन की नित्य परिक्रमा करते थे। वृद्धावस्था में जब वे परिक्रमा करने में असमर्थ हो गये तब श्री कृष्ण ने बालक रूप में उनको दर्शन दिये तथा उन्हें गोवर्धन शिला प्रदान कर उसी की चार परिक्रमा करने का आदेश दिया। उस शिला में श्री कृष्ण जी का चरण चिह्न, गाय के खुर का चिह्न एवं बंशी का चिह्न अंकित है। सनातन गोस्वामी जी के तिरोभाव के पश्चात् श्री जीव गोस्वामी ने इस शिला को श्री राधा-दामोदर मन्दिर में प्रतिष्ठित किया। इस मन्दिर की चार परिक्रमा देने पर गोवर्धन की परिक्रमा का फ़ल मिलता है।
श्री राधा श्याम सुन्दर मन्दिर :

श्यामानन्दम् ह्दानन्दम, वृन्दारण्य पुरन्दरम् ।
राधाभूषित वामान्गम्, नमामि श्यामसुन्दरम् ॥
श्री श्यामानंद प्रभु के प्राणधन श्री वृन्दावन के मालिक श्री राधा जी जिनके वाम पार्श्व में सुशोभित हो रही हैं । ऐसे श्यामसुंदर ठाकुर को मेरा प्रणाम है । श्री श्यामसुंदर जी श्यामानंद प्रभु की भक्ति के वशीभूत थे । निधिवन में झाड़ू लगाते समय श्री राधा जू की नूपुर मिली थी । जहाँ नूपुर मिला वह स्थान आज भी पूजित है । उस स्थान के ठीक सामने श्यामानंद प्रभु की समाधि है ।
यह मन्दिर वृन्दावन के प्रधान बाज़ार, लोई बाज़ार से सेवाकुंज या दामोदर मन्दिर जाने के रास्ते में मुड़ते ही बाँई ओर पड़ता है । श्री श्यामानंद प्रभु (दुखी कृष्णदास) इस विग्रह के प्राकटयकर्ता थे । मन्दिर के सामने के पथ के उस पार एक गृह में श्री श्यामानंद प्रभु का समाधि स्थल है । श्यामसुंदर मन्दिर के मूल सेवायत मेदिनीपुर जिला के गोपिवल्लभपुर के गोस्वामी हैं, क्यूंकि श्यामानंद प्रभु यहीं के रहने वाले थे । राधाश्यामसुन्दर जी का मन्दिर वृन्दावन का पहला मन्दिर है जिसने मंगला आरती की शुरुआत की, और जो आज तक सुचारू रूप से हो रही है । कार्तिक मास में इस मन्दिर में प्रतिदिन भव्य झाँकियों के दर्शन होते हैं ।
श्री श्यामानंद प्रभु का जन्म सन् 1535ई. को चैत्र पूर्णिमा के दिन पश्चिम बंगाल के मिदनापुर जिले के अंतर्गत धारेंदाबहादुरपुर ग्राम में हुआ था। इनके बपचन का नाम दुखी था। मात्र 18वर्ष की आयु में ही श्रीकृष्ण-प्राप्ति की तीव्र इच्छा उत्पन्न होने के कारण इन्होंने घर त्याग दिया। सन् 1554ई. में श्री हृदय चैतन्य अधिकारी ठाकुर से दीक्षा लेने के उपरांत इनका नाम कृष्णदास हो गया। आठ वर्ष तक संपूर्ण भारतवर्ष के तीर्थ करने के बाद दुखी कृष्णदास श्री श्यामसुंदर की वशीभूतता में खिंचकर श्री जीव गोस्वामी की कृपा से वृन्दावन आकर प्रेमपूर्वक रहने लगे । श्री जीव गोस्वामी ने दुखी कृष्णदास को भक्ति शास्त्र का ज्ञान दिया इसीलिए श्री जीव गोस्वामीजी दुखी कृष्णदास प्रभु के शिक्षा गुरु थे एवं उन्होंने ही इन्हें प्रिया-प्रियतम की नित्य रासलीला के क्षेत्र निधिवन में झाड़ू लगाने की सेवा प्रदान की । दुखी कृष्ण दास सदा श्रीराधा-कृष्ण की निकुंज-लीला के स्मरण में निमग्न रहते थे और प्रतिदिन कुंज की सोहिनी और खुरपे से सेवा करते थे। 12 साल तक दुखी कृष्ण दास इस तरहां ठाकुरजी की सेवा करते रहे और उनकी भक्ति में दिनों दिन डूबते रहे।
एक दिन जब दुखी कृष्ण दास ठाकुरजी की यादों में खोये हुए थे, तभी उन्हें ऐसी अनुभूति हुई की ठाकुरजी यहीं कुंजों में रास लीला कर रहे हैं और गोपियों के साथ नाच गा रहें हैं । उसी दौरान राधारानी जब श्रीकृष्ण को अधिक आनंद प्रदान करने के लिए तीव्र गति से नृत्य कर रही थीं। उस समय रासेश्वरी के बाएं चरण से इन्द्रनील मणियों से जडित उनका मंजुघोष नामक नूपुर रासस्थली में गिर गया, किंतु रासलीला में मग्न होने के कारण उन्हें इस बात का पता न चला। । नृत्य की समाप्ति पर राधा कृष्ण कुंजों में सजाई हुई शैय्या पर शयन करने चले जाते हैं । और अगली सुबह उठकर वे सब अपने घर चले जाते हैं ।
इधर प्रात: कृष्णदास अपनी सोहिनी और खुरपा लेकर जब कुंज में आए तो उन्हें झाड़ू लगाते समय पहले तो रास लीला के निशान मिलते हैं और फिर अनार के पेड के नीचे वह दुर्लभ अलौकिक नूपुर दिखाई पडा, उन्होंने ख़ुशी ख़ुशी उसे सिर माथे से लगाया, और उसे उठाकर उन्होंने अपने उत्तरीय में रख लिया और फिर वे रासस्थली की सफाई में लग गए।
थोडी देर पश्चात राधारानी उस खोए हुए नूपुर को ढूंढते हुए अपनी सखियों ललिता, विशाखा आदि के साथ जब वहां पधारीं तो वे लताओं की ओट में खडी हो गई। तब श्री ललिता सखी दुखी कृष्ण दास के पास पहोंची और उनसे कहा, " बाबा क्या तुम्हें यहाँ पर कोई नूपुर मिला है? मुझे दे दो, किशोरी जी का है ।" मंजरी भाव में दुखी कृष्णदास ने डूबे हुए उत्तर दिया, हम अपने हाथों से प्रियाजी को पहनाएँगी । इस पर राधारानी के आदेश से ललिताजी ने कृष्णदास को राधाजी का मंत्र प्रदान करके उन्हें राधाकुंड में स्नान करवाया। इससे कृष्णदास दिव्य मंजरी के स्वरूप को प्राप्त हो गए। सखियों ने उन्हें राधारानीजी के समक्ष प्रस्तुत किया। अपनी स्वामिनी का दर्शन करके कृष्णदास कृतार्थ हो गए। उन्होंने वह नूपुर राधाजी को लौटा दिया। राधारानी ने प्रसन्न होकर नूपुर धारण करा उसके पहले ललिताजी ने उस नूपुर का उनके ललाट से स्पर्श कराया तो उनका तिलक राधारानीजी के चरण की आकृति वाले नूपुर तिलक में परिवर्तित हो गया। राधारानी ने स्वयं अपने करकमलों द्वारा उस तिलक के मध्य में एक उज्ज्वल बिंदु लगा दिया। इस तिलक को ललिता सखी ने 'श्याम मोहन तिलक' का नाम दिया । वहीँ काली बिंदी लगाते हैं । विशाखा सखी ने बताया की दुखीकृष्ण दास जी कनक मंजरी के अवतार हैं ।
श्यामानंद   (तिलक-स्थान)
राधारानी ने श्री दुखीकृष्ण दास जी को मृत्युलोक में आयु पूर्ण होने तक रहने का जब आदेश दिया तो वे स्वामिनी जी से विरह की कल्पना करते ही रोने लगे। तब राधारानी ने उनका ढांढस बंधाने के लिए अपने हृदयकमल से अपने प्राण-धन श्रीश्यामसुंदर के दिव्य विग्रह को प्रकट करके ललिता सखी के माध्यम से श्यामानंद को प्रदान किया। यह घटना सन् 1578ई. की वसंत पंचमी वाले दिन की है। श्यामानंदप्रभु श्यामसुंदरदेव के उस श्रीविग्रह को अपनी भजन कुटीर में विराजमान करके उनकी सेवा-अर्चना में जुट गए। सम्पूर्ण विश्व में श्री श्याम सुन्दर जी ही एक मात्र ऐसे श्री विग्रह हैं जो श्री राधा रानी जी के हृदय से प्रकट हुए हैं।
दुखी कृष्ण दास ने जब यह वृतांत श्री जीव गोस्वामी को सुनाया तो किशोरीजी की ऐसी विलक्षण कृपा के बारे में सुनकर जीव गोस्वामी जी कृष्ण भक्ति में पागल हो गये और खुश होकर नृत्य करने लगे । कृष्ण प्रेम में रोते हुए जीव गोस्वामी ने दुखी कृष्ण दास से कहा कि -" तुम इकलौते ऐसे व्यक्ति हो इस संसार में जिसपर श्री राधारानी की ऐसी कृपा हुई है, और तुम्हारा स्पर्श पाकर में भी उस कृपा को प्राप्त कर रहा हूँ । आज से वैष्णव भक्त तुम्हें श्यामानंद नाम से जानेंगे, और तुम्हारे तिलक को श्यामानन्दी तिलक । और श्री राधा रानी ने जो तुम्हें श्री विग्रह प्रदान किया है वो श्यामसुंदर नाम से प्रसिद्ध होंगे और अपने दर्शनों से अपने भक्तों पर कृपा करेंगे । "
मन्दिर के पथ के उस पार एक गृह में श्री श्यामानंद प्रभु का समाधि स्थल है ।
श्री श्री राधा श्यामसुंदर मन्दिर में प्रतिष्ठित तीन विग्रह :-
श्री श्री लाला लाली :-
 मन्दिर में प्रतिष्ठीत सबसे छोटे विग्रहों का नाम लाला लालीजी है । लाला जी वही विग्रह हैं जिन्हें संवत 1578 ई० में श्री राधारानी ने अपने हृदय कमल से प्रकट कर श्री शयमानंद प्रभु को सेवा-पूजा के लिए प्रदान किया था । श्रीश्यामसुंदर के प्राकट्य के दो वर्ष उपरांत एक और अभूतपूर्व घटना घटी। भरतपुर रियासत के राजा के कोष में रातोंरात राधारानी (लाली) का एक दिव्य विग्रह स्वयं प्रकट हो गया। उस रात श्री श्यामसुंदरदेव ने श्यामानंद प्रभु को स्वप्न में कहा-मेरी राधारानी भरतपुर के राज प्रासाद में प्रकट हो गई हैं। तुम मेरा उनके साथ मिलन कराओ। उधर स्वयं प्रकटित राधारानी ने भरतपुर के महाराज को भी स्वप्न में आदेश दिया-मेरे श्यामसुंदर श्रीधामवृंदावन में श्यामानंद की कुंज में प्रकट हो चुके हैं। तुम मुझे वहां ले जाकर उनके साथ मेरा विवाह संपन्न कराओ। स्वप्न देखने के बाद राजा की निद्रा भंग हो गई। उन्होंने उसी समय अपनी रानी को जगाकर स्वप्न के विषय में बताया। सुबह होते ही जब वे दोनों अपने भंडारगृह में गए तो उन्हें वहां मूल्यवान रत्नों के मध्य राधारानी के स्वयं प्रकटित अपूर्व सुंदर श्रीविग्रह का दर्शन हुआ। राजा-रानी ने श्रीराधाजी के उस दिव्य विग्रह का श्रृंगार करके विधि-विधान से पूजन किया। तत्पश्चात् शुभ मुहू‌र्त्त देखकर भरतपुर के राजा-रानी अपने राज पुरोहित और मंत्रियों को साथ लेकर श्रीधामवृंदावन में श्यामानंद प्रभु की कुंज में पहुंचे। वे वहां भजन-कुटीर में श्रीश्यामसुंदरदेव की अपूर्व लावण्यमय त्रिभंगी श्रीविग्रह का दर्शन करके भाव-विभोर हो उठे। सन् 1580ई. में वसंत पंचमी के शुभ दिन श्रीवृंदावन में श्रीश्यामसुंदर एवं राधारानी ( लाला और लालीजी) के दिव्य विग्रहों का विवाहोत्सव बडे धूमधाम से संपन्न हुआ। राजदंपति ने कन्यादान की रस्म अदा की। इस प्रकार श्यामा-श्यामसुंदर विग्रह-रूप से परिणय सूत्र में बंध गए। विवाहोपरांत भरतपुर के राजा ने श्रीराधा-श्यामसुंदर का विशाल मंदिर बनवाया और एक गांव तथा बहुत सी संपत्ति मंदिर की सेवा में समर्पित की।
श्यामानंद जी ने अपने तिरोभाव से पहले लाला लालीजी की सेवा पूजा का भार श्री रसिकानंद प्रभु जो की अनिरुद्ध महाराज के अवतार बताये जाते हैं उन्हें सौंप दिया । तबसे ठाकुरजी की सेवा पूजा रसिकानंद जी के वंशज ही कर रहे हैं । ये विग्रह सिंहासन पर बाँई और विराजित हैं।
आज भी प्रत्येक वर्ष वसंत पंचमी के दिन श्रीधामवृंदावन में श्रीश्यामसुंदर देव का प्राकट्योत्सव एवं विवाहोत्सव बडी श्रद्धा एवं उत्साह के साथ मनाया जाता है। देश-विदेश से असंख्य भक्तगण इसमें भाग लेने आते हैं। वसंत पंचमी के दिन इन श्रीराधा-श्यामसुंदर के दर्शन का विशेष माहात्म्य है। लेकिन इसका सौभाग्य इन दिव्य दंपति के कृपापात्र ही पाते हैं।
श्री श्री राधा कुंजबिहारी :-
एक समय ऐसा भी आया जब पूरा ब्रजमंडल सालों तक अकाल से ग्रस्त रहा, उस समय रसिकानंद प्रभु जी के प्रपौत्र महंत श्री ब्रजजानंद देव गोस्वामी गोपिवल्लभपुर से व्रज मंडल पधारे। वे जब नंदग्राम गए तो वहाँ के वासियों ने उनसे अकाल से बचने का उपाए पूछा, तब उन्होंने अपनी साधना के बल पर वर्षा करवाई थी । जिससे प्रभावित होकर सभी नंदग्राम वासियों ने इनसे दीक्षा ली थी । महंत जी को अपने प्रभु श्री श्री राधा कुञ्ज बिहारीजी का श्री विग्रह नंदग्राम से प्राप्त हुआ था, और उनके तिरोभाव के बाद, इस विग्रह को श्री बलदेव विद्या भूषण वृन्दावन ले आये थे । इन्ही श्री राधा कुञ्ज बिहारीजी की स्थापना श्री राधा श्यामसुन्दर मन्दिर में की गयी । यह विग्रह सिंहासन के दाहिनी ओर स्थापित हैं ।
श्री श्री राधाश्यामसुन्दर :-
 यह विग्रह सिंहासन के मध्य में विराजमान हैं, ये गौड़ीय वेदान्ताचार्य श्री बलदेव विद्या भूषण द्वारा संवत 1719 ई० की वसंत पंचमी को स्थापित करवाए गए थे । स्वामी जी को ये आभास हुआ की छोटे से श्यामसुंदर जी का साज श्रृंगार भली भाँति नहीं हो पाता । तब उन्होंने निलगिरी, उड़ीसा से विशेष पत्थर प्राप्त कर श्री श्यामसुन्दर जी के सुन्दर विग्रह का निर्माण करवाया, और इनके साथ ही अष्टधातु की सुन्दर राधिका प्रतिमा का भी निर्माण करवाया था ।
श्री बलदेव विद्याभूषण प्रभु उड़ीसा के अन्तर्गत प्रसिद्ध रेमुनाके निकटवर्ती किसी गाँव में जन्मे थे । चिल्का हृद के तटपर किसी विद्वत गाँव में इन्होंने व्याकरण, अलंकार और न्याय शास्त्र का अध्ययन किया । तत्पश्चात् वेद अध्ययन के लिए मैसूर गए । उसी समय उडुपी में उन्होंने वेदांत के माध्व-भाष्य के साथ-साथ शंकर-भाष्य, श्री-भाष्य, पारिजात-भाष्य एवं अन्यान्य वेदांत के भाष्यों का गहन अध्ययन किया । कुछ दिन पश्चात् श्रीधाम जगन्नाथ पूरी में श्री रसिकानन्द प्रभु के शिष्य श्रीराधादामोदर के समीप षट्सन्दर्भ का अध्ययन किया । अध्ययन करते समय श्रीराधादामोदर का अगाध पाण्डित्य तथा साथ ही भक्तिमय जीवनका दर्शन कर उनके शिष्य हो गए । तत्पश्चात् वृन्दावन में प्रसिद्ध गौड़ीय रसिकाचार्य श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के निकट श्रीमद्भागवत एवं अन्यान्य गोस्वामी-ग्रंथों का अध्ययन किया तथा श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के निर्देश से जयपुर में पधारे ।वहाँ "गलता" नामक प्रसिद्ध स्थान में श्री-सम्प्रदाय तथा अन्यान्य विपक्ष के विद्वानों को प्राजितकर श्रीविजयगोपाल विग्रह की स्थापना की । साथ ही उन्होंने अत्रस्थ विद्वानों की प्रतीति के लिए ब्रह्मसूत्र के श्रीगोविन्दभाश्य की रचना की तथा जयपुर के प्रसिद्ध गोविन्द मंदिर में श्री गोविन्ददेव के साथ श्री राधाजी की भी पुनः प्रतिष्ठा की । उनके द्वारा रचित गोविन्दभाष्य, षट्सन्दर्भ की टीका, सिद्धान्तरत्नम्, वेदान्तस्यामन्तक, प्रमेयरत्नावली, सिद्धान्तदर्पण आदि ग्रन्थावली ने श्री गौड़ीय-वैष्णव-साहित्य के भण्डार की श्रीवृद्धि की है ।
सेवा कुँज (निकुंज वन): (सन 1590 )

सेवाकुंज को निकुंज वन भी कहते हैं। यह स्थान राधा दामोदर मन्दिर के दक्षिण पूर्व कोने में है। प्राचीन वृन्दावन के दर्शन सेवाकुञ्ज में आते ही होने लगते हैं । यह स्थान गोस्वामी हित हरिवंश द्वारा प्रकट किये गये लीला स्थलों में से एक है और इसका विशेष महत्त्व है। वन के मध्य में लता-कुंजों के बीच सफ़ेद संगमरमर का एक छोटे सा मन्दिर है जिसमें श्रीराधिका के चित्रपट की पूजा होती है, चित्र में श्री कृष्ण राधा जी के चरणों को दबा रहे हैं। रासलीला के श्रम से व्यथित राधाजी की भगवान् द्वारा यह सेवा किए जाने के कारण इस स्थान का नाम सेवाकुंज पड़ा। साथ में ही ललिता और विशाखा सखी के भी दर्शन हैं। मन्दिर के प्रांगण में बेठने पर मन को शांति का अनुभव होता है ।

भक्त रसखान ब्रज में सर्वत्र कृष्ण को खोज खोज कर हार गये, अन्त में यहीं पर रसिक कृष्ण का उन्हें दर्शन हुआ। उन्होंने अपने पद में उस झाँकी का वर्णन इस प्रकार किया है -
देख्यो दुर्यों वह कुंज कुटीर में।
बैठ्यो पलोटत राधिका पायन ॥
मन्दिर में एक शय्या शयन के लिए है, जिसके विषय में कहा जाता है की रात्रि में प्रिया प्रितम साक्षात् रूप में आज भी इसपर विश्राम करते हैं । साथ ही सेवाकुंज के बीचोंबीच एक पक्का चबूतरा है, ब्रजवासियों का कहना है कि आज भी प्रत्येक रात्रि में श्री राधाकृष्ण-युगल साक्षात् रूप से यहाँ विहार करते हैं । अतः रात्रिकाल के आरम्भ में ही इस कुञ्ज से सभी को हटा दिया जाता है । दिन में मोर-बन्दर, पशु-पक्षी से वन भरा रहता है किन्तु रात में नीरव हो जाता है, रात्रि काल में कोई भी भक्त अन्दर प्रवेश नहीं करता यहाँ तक की उद्दण्ड बन्दर भी अपने-आप शाम होते ही इस कुञ्ज से निकल जाते हैं । कभी-कभी ऐसी घटनाएँ घटी हैं, जब किसी व्यक्ति ने हठपूर्वक रात में यहाँ रहनेका प्रयास किया । परन्तु प्रातःकाल उसका मरा हुआ शारीर ही देखा गया । कोई-कोई किसी प्रकार से न मरने पर भी सम्पूर्ण रूप से पागल हो गए । वन के मध्य में सुन्दर ललिता कुण्ड है जिसे रासलीला के समय ललिता जी को प्यास लगने पर श्रीकृष्ण जी ने अपनी वेणु से खोदकर प्रकट किया था । जिसके सुशीतल मीठे जल से सखियों के साथ ललिताजी ने जलपान किया था । पास ही केलि कदम्ब और श्यामतमाल वृक्ष हैं, वृक्ष की प्रत्येक गाँठ में शालिग्राम जैसे कुछ उभरे हुए दाग़ दीख पड़ते हैं।
लसत लाल अरु लाडिली ललितादी अलिकुंज ।
जगदम्बा सेवित सदा धन्य धन्य सेवाकुंज।।
आजकल यह मन्दिर राधावल्लाभिय गोस्वामियों के अधिकार में है ।


राधा वल्लभ मन्दिर :
 
 
 
सब सों हित निष्काम मत वृन्दावन विश्राम।
राधावल्लभ लाल को हृदय ध्यान मुख नाम ।।
तनहिं राखु सत्संग में मनहिं प्रेम रस मेव ।
सुख चाहत हरिवंश हित कृष्ण कलप तरु सेव ।।
यह वृन्दावन का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मन्दिर है। इसमें श्री हित हरिवंश द्वारा सेवित श्री राधावल्लभ जी के दर्शन हैं। इस मन्दिर का निर्माण संवत 1585 में अकबर बादशाह के खजांची सुन्दरदास भटनागर ने करवाया था । मुगल बादशाह अकबर ने वृंदावन के सात प्राचीन मंदिरों को उनके महत्व के अनुरूप 180 बीघा जमीन आवंटित की थी जिसमें से 120बीघा अकेले राधा वल्लभ मंदिर को मिली थी। मन्दिर लाल पत्थर का है और मन्दिर के ऊपर शिखर भी था, जिसे औरंगजेब ने तुड़वा दिया था ऐसा ग्राडजेनायर का कथन है । तब श्री राधा वल्लभ जी के श्री विग्रह को सुरक्षा के लिए राजस्थान के भरतपुर जिले के कामां में ले जाकर वहां के मंदिर में स्थापित किया गया और पूरे 123 वर्ष वहां रहने के बाद उन्हें फिर से यहां लाया गया। वास्तविक मन्दिर के पास में ही नया मन्दिर है, वर्तमान में श्री राधावल्लभ उसी में विराजमान हैं । राधावल्लभ के साथ में श्रीजी नहीं हैं केवल वामअंग में मुकुट की सेवा होती है ।
श्री हित हरिवंश महाप्रभु को यह विग्रह होडल के पास चिड़थावल ग्राम में उनके विवाह के समय दहेज के रूप में प्राप्त हुआ था । हरिवंश गोस्वामी श्री राधाजी के परम भक्त थे , और वंशी के अवतार थे। उनका मानना था कि राधा की उपासना और प्रसन्नता से ही कृष्ण भक्ति का आनंद प्राप्त होता है। अतः उन्हें राधाजी के दर्शन हुए एवं एकादशी के दिन राधाजी ने उन्हें पान दिया था, अतः उनके सम्प्रदाए में एकादशी को पान वर्जित नहीं है ।
रसना कटौ जु अन रटौ, निरखि अन फुटौ नैन।
स्र्वन फूटौ ज अन सुनौ, बिन राधा जस बैन।
 
हितहरिवंश जी की इस प्रेममई उपासना को सखी भाव की उपासना माना गया है। और इसी भाव को श्री राधा वल्लभ लाल जी की प्रेम और लाड भरी सेवाओं में भी देखा जा सकता है । जिस प्रेम भाव तथा कोमलता से इनकी सेवा पूजा होती है वह देखते ही बनती है। श्री राधावल्लभ लाल जी आज भी अपनी बांकी अदाओं से अपने भक्तों के मन को चुरा रहे हैं । ठाकुर जी की जो सेवाएं मन्दिर में होती हैं उन्हें " नित्य सेवा " कहा जाता है, जिनमें "अष्ट सेवा" होती हैं । "अष्ट आयाम " का अर्थ एक दिन के आठ प्रहर से है।
एक दिन में आठ प्रहर होते हैं
1 प्रहर = 3 घंटे
इस हिसाब से 8 प्रहर = 24 घंटे जो एक दिन बनाते हैं ।
ये आठ सेवाएं इस प्रकार से हैं :-
मंगला आरती
हरिवंश मंगला आरती
धूप श्रृंगार आरती
श्रृंगार आरती
राजभोग आरती
धूप संध्या आरती
संध्या आरती
शयन आरती
यहाँ पर सात आरती एवं पाँच भोग वाली सेवा पद्धति का प्रचलन है। यहाँ के भोग, सेवा-पूजा श्री हरिवंश गोस्वामी जी के वंशजों द्वारा सुचारू रूप से की जाती है। वृंदावन के मंदिरों में से एक मात्र श्री राधा वल्लभ मंदिर ही ऐसा है जिसमें नित्य रात्रि को अति सुंदर मधुर समाज गान की परंपरा शुरू से ही चल रही है। इसके अलावा इस मन्दिर में व्याहुला उत्सव एवं खिचड़ी महोत्सव विशेष हैं।
समाज गान में गाए जाने वाले एक पद कुछ इस प्रकार है :-
खिचरी राधा वल्लभ जू कौंप्यारी।
किसमिस,दाख, चिरोंजी,पिस्ता, अदरक सोंरुचिकारी॥
दही, कचरिया,वर, सेंधाने, वरा,पापर,बहु तरकारी।
जायफल, जावित्री, मिरचा, घृत सोंसींच संवारी।

श्रीनृसिंह मन्दिर :

श्री राधावल्लभ घेरे के प्रवेश द्वार के पास ही प्राचीन श्री नृसिंह जी भगवान् का मन्दिर है। नृसिंह चतुर्दशी के दिन शाम को यहाँ हिरण्यकशिपु वध की लीला का आयोजन होता है।
बाँके बिहारी मन्दिर :

हमारो प्रणाम बांकेबिहारी को।
मोर मुकुट माथे तिलक बिराजे, कुंडल अलका कारी को॥
अधर मधुर पर बंसी बजावै रीझ रिझावै राधा प्यारी को।
यह छवि देख मगन भई मीरा, मोहन गिरवर-धारी को॥
निधिवन में स्वामी श्री हरिदासजी ने अपने विशेष कृपा पात्र श्री विठलविपुल जी को अपने प्राणधन श्री श्यामा-कुंजबिहारी जी के दर्शन करवाए थे । और उस वक्त हरिदासजी के अनुनय विनय पर श्यामा-कुंजबिहारी की युगल छवि श्री बाँके बिहारी जी के एक रूप में प्रतिष्ठित हो गयीं थी । उन्हीं स्वामी श्री हरिदास जी के लाडले इष्ट श्री बाँके बिहारी जी का प्राकट्य स्थल निधिवन में विशाखा कुण्ड की मृतिका के नीचे से बताया जाता है । किन्तु निधिवन में प्राकट्य स्थल को देखने से लगता है की बिहारीजी निधिवन के वृक्ष-कुंजों में से स्वयं ही प्रकट हुए हैं । बहोत दिनों तक बिहारीजी निधिवन में ही सेवित रहे बाद में पुराना शहर में मदनमोहन जी के जाने के रस्ते में उनका प्राचीन मन्दिर भरतपुर की लक्ष्मीबाई ने तैयार करवाया था । उस मन्दिर के जीर्ण शीर्ण होने पर भक्तगणों ने करीब 70000 रु० इकठा करके नवीन मन्दिर का निर्माण संवत 1864 में करवाया था और तब से श्री बाँके बिहारी लाल इसी मन्दिर में विराजमान हैं । यह वृन्दावन का सबसे प्रसिद्ध मन्दिर है, और कहा जाता है की श्री बाँके बिहारी जी के दर्शन किये बिना वृन्दावन की यात्रा भी अधूरी रहती है। इसीलिए यहाँ के दर्शन और सेवा की अलग विशेषता है । अन्य मंदिरों की तरहां प्रियाजी की मूर्ति बिहारीजी के पार्श्व में नहीं है, यहाँ पर मुकुट सेवा है , और यही वस्त्र आभूषणों के दर्शन तो हर किसी को हो जाते हैं, लेकिन उनके स्वरुप के दर्शन तो केवल विरले रसिक प्रेमियों को ही होते हैं जिन पर हरिदास जी भी कृपा करते हैं । और जब हरीदास जी कृपा करते हैं उस समय एक बिजली की तरहां चमकती हुई प्रिया जी श्री बाँके बिहारी जी के वाम अंग में से झांकती हुई प्रकट होती हैं ।
इस मन्दिर में झांकि दर्शन हैं । ठाकुरजी के दर्शन निरंतर नहीं होते, ठाकुरजी के विग्रह के सामने एक पर्दा है जो की भक्त और भगवान के बीच में दो-दो मिनट के अंतराल पर आता जाता रहता है, इस पर यहाँ के गोसाईं जी बताते हैं की ठाकुरजी बड़े चंचल हैं और जो भी भक्त उन्हें प्रेम से रिझाता है ये उसी के प्रेम के वशीभूत हो उसके साथ चल देते हैं इसीलिए इस मन्दिर में ऐसा नियम बना दिया गया है कि झलक दर्शन में ठाकुर जी का पर्दा खुलता एवं बन्द होता रहेगा।
यहाँ एक विलक्षण बात यह है कि श्रीबिहारी जी मन्दिर में मंगला–आरती नहीं होती हैं। इसका कारण यह है कि ठाकुरजी नित्य-रात्रि में रास में थककर भोर में शयन करते हैं। अतः प्रातः आरती के लिए ठाकुरजी के शयन में बाधा डालकर इन्हें जगाना उचित नहीं है।
मन्दिर में सेवा और महोत्सव सखी भाव से मनाये जाते हैं। यहाँ पर साल में सिर्फ़ एक बार जन्माष्टमी के अवसर पर मंगला आरती होती है , वैशाख मास की अक्षय तृतीया के दिन साल में एक दिन चरण दर्शन होते हैं, श्रावण के महिने में केवल हरियाली तीज के दिन ही ठाकुरजी स्वर्ण-रजत हिंडोले में विराजमान होकर दर्शन देते हैं, इसी तरहां ठाकुरजी केवल शरद पूर्णिमा के दिन बंशी धारण करते हैं, इसके अलावा ग्रीष्म ऋतु में फ़ूल बंगले, बिहार पंचमी ( प्राकट्य उत्सव ), होली आदि उत्सवों पर विशेष दर्शन होते हैं।

श्री मदनमोहन मंदिर
जयतां सुरतौ पङगोर्मममन्द मतेर्गती ।
मत् सर्वस्व पदाम्भोजौ राधामदन मोहनौ ॥
श्री राधामदनमोहन जी की जय हो, अर्थात् वे दोनों सर्वदा सर्वोत्कर्ष के सहित विराजमान रहें, क्यूंकि वे दोनों परमदयालु हैं, मुझ पंगु अर्थात दुसरे स्थान में जाने की शक्ति से रहित मंदमति अर्थात मंदबुधि के भी, अज्ञानी एवं वृद्ध होने के नाते, जो गति अर्थात रक्षक हैं, तथा जिन दोनों के श्री चरण-कमल मेरे सर्वस्व हैं, में उनकी वंदना करता हूँ ।
सनातन गोस्वामी जिला मालदा [बंगाल] के रामकेली नगर के हुसेनशाह नवाब के मंत्री थे । श्री गौरांग महाप्रभु के आदेश से मंत्रित्व को त्यागकर काशी होते हुए वृन्दावन आये और द्वादश टीला जो कलिदेह के निकट है, वही पर पास में एक कुटिया में निवास करते थे । और उन्ही श्री सनातन गोस्वामी जी की भक्ति से प्रसन्न होकर श्री मदनमोहनजी ने मथुरा के चौबे रमणी के घर से आकर उनकी सेवा प्राप्त की । श्री कृष्ण के प्रपौत्र श्री बज्रनाभ महाराज ने श्री गोविन्द, श्री गोपीनाथ एवं श्री मदन मोहन इन तीन विग्रहों की श्रीधाम वृन्दावन में स्थापना की थी । कालांतर में मलेच्छों के अत्याचार से पुजारी इन विग्रहों को इधर-उधर छिपाकर वहाँ से चले गए । वृन्दावन घोर जंगल के रूप में परिणत हो गया । यहाँ पर किसी गृहस्थी का वास नहीं था । अतः सनातन गोस्वामी भिक्षा के लिए मथुरा जाते थे । श्री सनातन गोस्वामी जी प्रातःकाल वृन्दावन से सोलह मील चलकर चौदह मील गोवर्धन की परिक्रमा करते थे । वहाँ से सोलह मील चलकर मथुरा में मधुकरी करते और पुनः वृन्दावन में अपनी भजन कुटी पर लौट आते ।
एक दिन मथुरा में स्थित एक चौबे के घर में श्री सनातन गोस्वामीजी ने श्याम कांति वाले मदन नामक चंचल बालक को देखा जो चौबे के घर में स्थित मन्दिर से निकलकर चौबे के बालकों के साथ गुल्ली-डण्डा खेल रहे हैं । श्यामकान्ति वाले मदन नामक चञ्चल बालक ने चौबाईन के बालक को पराजित कर दिया । मदन ने पराजित चौबे बालक के कंधे पर बैठकर, घोड़े पर चढ़ने का आनंद लिया । किन्तु दूसरी बार पराजित होनेपर जब मदन के कंधे पर चौबे बालक को चढ़ने की बारी आई, तो मदन भागकर मंदिर में प्रवेश कर गया । ऐसा देखकर चौबे का बालक क्रोध से गाली देता हुआ उसके पीछे दौड़ा । वह मंदिर में प्रवेश करना ही चाहता था । किन्तु पुजारीजी ने उसे डाँट-डपटकर भगा दिया । अतः विग्रह बने मदन को दुरसे ही तर्जनी अंगुली दिखाते हुए चौबे बालक ने कहा-अच्छा, कल तुझे देख लूँगा ।
श्री सनातन गोस्वामी इस दृश्य को देखकर आश्चर्यचकित रह गए । दुसरे दिन वे कुछ पहले ही दर्शनों की पिपासा लेकर पहुँचे । कलेवे का समय था । अतः चौबाईन दोनों बालकों के कलेवे के लिए खिचड़ी पका रहीं थीं । अभी उसने स्नान आदि भी नहीं किया था । दोनों बालक कलेवे की प्रतीक्षा में बैठे थे । मैया दातुन करती जा रही थी तथा उसके दूसरे सिरे से खिचड़ी को भी चलाती जा रही थी । खिचड़ी पक जाने पर कटोरी में गरम-गरम खिचड़ी बालकों के सामने रखकर फूँक से उसे ठण्डा भी करने लगी तथा दोनों बालक बड़े प्रेम से खिचड़ी का रसास्वादन करने लगे ।
सनातन गोस्वामी से चौबाईन का यह अनाचार सहन नहीं हुआ । उन्होंने कहा मैया ! इन बालकों को बिना स्नान किये दातुन से खिचड़ी चलाकर अपवित्र कलेवा देना उचित नहीं । चौबाईन को अपनी भूल समझ में आ गई, बोली-बाबा ! कल से शुद्ध रूप में बनाकर इन्हें कलेवा कराऊँगी ।
श्री सनातन गोस्वामी श्रीमदनमोहन विग्रह की कुछ और भी लीलाएँ देखने के लिए तीसरे दिन पुनः पधारे । आज मैया के स्नान पूजन में विलम्ब के कारण दोनों बालक भूख लगने के कारण कलेवा के लिए मचल रहे थे । मैया उन्हें सांत्वना देती हुई स्नान आदि से निवृत होकर बर्तनों को धोकर खिचड़ी पका रही थी । दोनों बालक उसके वस्त्र पकड़कर मचल रहे थे । सनातन गोस्वामी यह भी सहन नहीं कर सके । वे मैया के पास जाकर बोले-मैया ! तुम्हें स्नान आदि के द्वारा पवित्र होने की कोई भी आवश्यकता नहीं है । यदि यह मदन तुम्हारे अपवित्र और झूठे कलेवा से ही प्रसन्न है, तो वैसा ही करना उचित है । मैंने तुम्हारे चरणों में अपराध किया है । कल से तुम अपनी समझ से इनको सन्तुष्ट करने के लिए जैसा भी उचित समझो वैसा ही करना ।
श्री सनातन गोस्वामी इन अदभुत दृश्यों को कई दिवस लगातार देखते रहे और आश्चर्य चकित होकर उस बालक के दर्शन हेतु नियम से चौबे के घर जाने लगे । श्री सनातन गोस्वामी जी चौबाइन से उस दिव्य श्याम कांति वाले मदन नामक बालक के भोजन अवशेष के लिए याचना करते और जिसे पाकर वह पुलकित हो उठते तथा प्रेम में विभोर होकर श्री धाम वृन्दाव लौट आते । एक रात स्वप्न में श्री मदनमोहनजी ने श्री सनातन गोस्वामी से कहा कि तुम मुझे मथुरा से यहाँ ले आओ और उधर चौबाईन को श्री मदनमोहनजी ने बताया कि तुम मुझे श्री सनातन गोस्वामी के हाथ में सौंप दो । श्री सनातन गोस्वामी जी श्री मदनमोहनजी का स्वप्नादेश पाकर जब दुसरे दिन मथुरा पहुँचे तो बालक मदन मन्दिरगृह से निकलकर बोला- ' बाबा ! में तुम्हारे साथ चलूँगा ।" किन्तु श्री सनातन गोस्वामी ने कहा -" में बिलकुल निष्किञ्चन व्यक्ति हूँ न मेरे रहने का स्थान है, न मेरे पास स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था । जब यशोदा मैया भी तुम्हें सम्पूर्ण रूप से संतुष्ट नहीं कर सकीं, तो मैं तुम्हारा पालन-पोषण कैसे कर सकता हूँ ?" फिर भी बालक मदन उनके साथ चलने की जिद करने लगा । उसी समय श्री सनातन गोस्वामी को आया देख चौबाईन ने रोते-रोते श्रीमदनमोहन जी को श्री सनातन गोस्वामी को सौंप दिया और मूर्छित हो गयीं । तब चौबाईन को सांत्वना देकर श्री सनातन गोस्वामी जी ने बालक मदन से कहा- यदि चलने की इच्छा है तो मैं तुम्हें कंधे पर बिठाकर नहीं चल सकता । तुम मेरे पीछे-पीछे चले आओ । बालक ने कहा-मैं तुम्हारे पीछे-पीछे चल रहा हूँ, परन्तु रास्ते में मुड़कर पीछे मत देखना । अपनी भजन कुटी पर ही देखना ।
जब सनातन गोस्वामी अपनी भजन-कुटी पर पहुँचे, तो मुड़कर देखा कि बालक मदन कुछ मुस्करा कर विग्रह के रूप में परिवर्तित हो गया । सनातन गोस्वामी ने दो चार पत्थरों को खड़ाकर ऊपर से कुछ पट्टियाँ डाल दीं और उसी में इनको पधरा दिया ।
संमोहन तंत्र में वर्णन आता है कि श्री मदनमोहनजी का विग्रह कृष्ण की द्वादश वर्ष की अवस्था का है ।
कामस्य मोहनार्थय वर्ष द्वादश रुपिणे । द्वादशवर्ष भवस्पोयमवतारः स्वयं स्थितः ॥
मदनमोहन नाम्ना गोपालस्य विराजते । वृन्दावने महारम्ये, सर्वलोके मनोहरे ॥
श्री सनातन गोस्वामी जी भिक्षा के द्वारा प्राप्त आटे से अलौनी बाटी बनाकर अपने मदनगोपाल का भोग लगाकर खुद पाते थे । एक दिन मदनमोहनजी ने वैसा नैवेध्य पाते समय नमक माँगा । किन्तु नमक रहे तो दें ? कुटी में नमक तो था ही नहीं ? मदनमोहनजी ने कहा यह सुखी बाटी मेरे गले से नीचे नहीं उतर रही है । सनातन गोस्वामी ऐसा जानकर बड़ा ही अनुताप करने लगे । एक गरीब पिता के समान वस्तु (नमक) के नहीं रहने पर बनावटी रूप में अपने दुःख को छिपाते हुए कहने लगे कि मैं एक वैरागी हूँ, किससे नमक माँगने जाऊँगा । मैने तो तुम्हें यहाँ आने से पहले ही बता दिया था कि मेरे पास स्वादिष्ट भोजन की व्यवस्था न होगी । इस पर श्री मदनमोहनजी बोले, यदि किसी तरह मैं नमक की व्यवस्था कर दूँ तो उस पर तुम्हें कोई आपत्ति तो नहीं है । श्री सनातन गोस्वामी जी ने कहा कि नहीं, यदि तुम नमक ला दो तो मैं रसोई बना दूँगा ।
इसी समय मुलतान देशीय कृष्णदास कपूर नामक एक धनी व्यवसायी बड़ी-बड़ी नौकाओं में मूल्यवान द्रव्य रखकर व्यवसाय करने के लिए जा रहा था । परन्तु सनातन गोस्वामी की भजन-कुटी के सामने ही यमुना नदी में उसकी नावें रेती में अटक गयीं । लाख चेष्टा करने पर भी वे निकल नहीं सकीं । व्यवसायी ने उतरकर कुटी के सामने अपूर्व सुन्दर श्री मदनमोहन विग्रह को देखा तथा सनातन गोस्वामी के इंगित करने से उनके सामने बैठकर रोने लगा । उसने मन ही मन संकल्प किया कि मेरी नाव निकल जाने पर व्यवसाय में जो कुछ लाभ होगा, उसके द्वारा ठाकुरजी के लिए एक सुन्दर मन्दिर का निर्माण कर इनकी सेवा पूजा और भोग-राग का उचित प्रबंध करूँगा । संकल्प लेने के साथ ही नौकाएँ अपने आप चलने लगीं । उस व्यवसाय में उसे खूब धन मिला । उसने सनातन गोस्वामी की प्रेरणा से श्री मदनमोहन जी का विशाल मन्दिर बनवाया । परन्तु सनातन गोस्वामी भोगराग, सेवा-पूजा आदि की समुचित व्यवस्था का सब भार पुजारियों पर छोड़कर पुनः ब्रज में मधुकरी द्वारा किसी प्रकार जीवन निर्वाह करते हुए एक-एक पेड़ के नीचे रहते हुए कठोर साधन-भजन करने लगे और नित्य श्री गिरिराज परिक्रमा के लिए जाने लगे । वृधावस्था हो जाने पर इन्ही को श्री कृष्ण जी ने श्री गिरिराज चरण शिला दी थी जो श्री राधा दामोदर मन्दिर, वृन्दावन के श्री सिंहासन पर आज भी विराजमान हैं । इसी राधादामोदर मन्दिर की चार परिक्रमा करने से श्री गिरिराज जी की सप्त कोसी परिक्रमा का पुण्य लाभ सहज रूप से प्राप्त हो जाता है ।
इस मन्दिर के पश्चिम दिशा में स्थित एक ऊँचा स्थान है जहाँ द्वादशदित्य टीला व प्रस्पंदन स्थल है, इसी स्थल पर श्री कृष्ण ने कालिया का दमन करने के उपरांत ठंडक से बचाव हेतु द्वादश आदित्यों की सेवा ग्रहण की थी । यहीं पर से श्री सनातन गोस्वामीजी ने बादशाह अकबर को श्री वृन्दावन की शोभा दिखाई थी और इसी दिव्य स्थल पर शिव द्वारा प्रेरित काशी से आये ब्रह्मण को चिंतामणि प्रदान की थी ।
श्री सनातन गोस्वामी के अप्रकट लीला में प्रवेश करने के बाद 1670 ई० में हिन्दू विरोधी राजाओं ने इस मन्दिर के शिखर आदि को तोड़कर मन्दिर को अपवित्र कर दिया । उसके पहले ही श्री मदनमोहन जी अन्य विग्रहों के साथ जयपुर चले गये थे । इस समय वे करोली में विराजमान हैं । 1748 ई० में श्री मदन मोहनजी की पर्तिभुती वृन्दावन में स्थापित हुई और 1819 ई० में कलकत्ता के श्री नन्दकुमार वसु के द्वारा वर्तमान मन्दिर का निर्माण हुआ।
सेवा प्राकट्य और इष्टलाभ नामक प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथों में लिखा है की सनातन गोस्वामी ने संवत 1590 ई० में महावन के परशुराम चौबे से श्री मदनमोहनजी को प्राप्तकर उसी संवत्सर में माघ शुक्ला द्वितीया तिथि में पुनः स्थापना कर श्रीकृष्णदास ब्रहम्चारीजी के ऊपर सेवा पूजा का भार न्यौछावर कर दिया । उस समय श्री मदनमोहनजी के साथ श्री राधा विग्रह नहीं था । श्री मदनमोहनजी के प्रकट होने की बात सुनकर उड़ीसा के राजा प्रतापरुद्र के पुत्र श्री पुरुषोत्तम जाना ने बड़ी श्रद्धा के साथ पुनः दो राधा विग्रहों को पुरी धाम से वृन्दावन भेजा । श्री मदनमोहन जी ने अपने पुजारी को स्वप्नादेश दिया की पुरी से जो दो विग्रह आये हैं, उनमें से एक बड़ी ललितजी हैं और छोटी राधिकाजी हैं ।
श्री भक्तिरत्नाकर में यह उल्लेख पाया जाता है कि इस मन्दिर के दक्षिण भाग में श्री सनातन गोस्वामी ने श्री चैतन्य महाप्रभु के लिए श्री मन्दिर का निर्माण किया था किन्तु श्री चैतन्य महाप्रभु द्वितीये बार वृन्दावन में नहीं पधारे । पुराने मन्दिर के निकट ही पश्चिम की ओर श्री सनातन गोस्वामी जी की भजन कुटीर, समाधि मन्दिर आदि दर्शनीय हैं ।

कृष्ण-बलराम मन्दिर(इस्कॉन) :


यह मन्दिर रमणरेती में वनमहाराज के कालेज के सामने अवस्थित है । मन्दिर की प्रतिष्ठा विदेशियों द्वारा सन् 1975 में की गई है । इसी कारण इसे अंगेज़ों का मन्दिर भी कहते हैं । यद्यपि उनके गुरु (प्रेरक) बंगाल निवासी गौड़ीया वैष्णव प्रभुपाद भक्तिसिद्धांत शास्त्री थे, जिन्होंने अपनी विद्वत्ता और प्रतिभा के बल पर विदेशियों को भी अपने धर्म और सिद्धांतों की तरफ आकर्षित किया । "अन्तर्राष्ट्रीय श्री कृष्णभावनामृत संघ" के नाम से सोसायटी का प्रचार प्रसार किया, इस सोसायटी के देश-विदेशों में सेकड़ों मन्दिर हैं।
उक्त मन्दिर सफ़ेद एवं काले संगमरमर का बना हुआ है मन्दिर के पास में ही अतिथिगृह, भोजनालय तथा विद्यालय, और छात्रावास संलग्न हैं जिसमें देश-विदेश के बालक अन्य शिक्षा के साथ धार्मिक शिक्षा भी पाते हैं
मन्दिर में सेवा-पूजा भारतीय वैदिक रीति से होती है मन्दिर के गर्भगृह में तीन कक्ष हैं। तीनों भागों में अलग-अलग विग्रह हैं, जिनकी सेवा-पूजा, आरती आदि नियमित समय में तीन पुजारियों द्वारा होती है दाहिनी ओर श्रीनिताई-गौरांग महाप्रभु सेवित हैं। मध्य कक्ष में श्री कृष्ण-बलराम के बहुत ही सुन्दर विग्रह हैं। बाँई ओर श्री राधा-श्यामसुन्दर युगल किशोर अपनी सखी ललिता-विशाखा के साथ सुशोभित हैं।
वृन्दावन के आधुनिक मन्दिरों में यह एक भव्य मन्दिर है। श्रृंगार, साज-सज्जा और सफाई की दृष्टि से मन्दिर उच्चकोटि का और दर्शन योग्य है मन्दिर में एक ओर प्रभुपाद की पाषाण मूर्ति विराजित है

कात्यायनी पीठ
भगवान श्री कृष्ण की क्रीड़ा भूमि श्रीधाम वृन्दावन में भगवती देवी के केश गिरे थे, इसका प्रमाण प्राय: सभी शास्त्रों में मिलता ही है। आर्यशास्त्र, ब्रह्मवैवर्त पुराण एवं आद्या स्तोत्र आदि कई स्थानों पर उल्लेख है- "व्रजे कात्यायनी परा" अर्थात वृन्दावन स्थित पीठ में ब्रह्मशक्ति महामाया श्री माता कात्यायनी के नाम से प्रसिद्ध है। वृन्दावन स्थित श्री कात्यायनी पीठ भारतवर्ष के उन अज्ञात 108 एवं ज्ञात 51 पीठों में से एक अत्यन्त प्राचीन सिध्दपीठ है।
देवर्षि श्री वेदव्यास जी ने श्रीमद् भागवत के दशम स्कंध के बाईसवें अध्याय में उल्लेख किया है-

कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नम:॥
हे कात्यायनि! हे महामाये! हे महायोगिनि! हे अधीश्वरि! हे देवि! नन्द गोप के पुत्र को हमारा पति बनाओ हम आपका अर्चन एवं वन्दन करते हैं।
दुर्गा सप्तशती में देवी के अवतरित होने का उल्लेख इस प्रकार मिलता है-
नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भसम्भवा।
मैं नन्द गोप के घर में यशोदा के गर्भ से अवतार लूंगी।

श्रीमद् भावगत में भगवती कात्यायनी के पूजन द्वारा भगवान श्री कृष्ण को प्राप्त करने के साधन का सुन्दर वर्णन प्राप्त होता है। यह व्रत पूरे मार्गशीर्ष (अगहन) के मास में होता है। भगवान श्री कृष्ण को पाने की लालसा में ब्रजांगनाओं ने अपने ह्रदय की लालसा पूर्ण करने हेतु यमुना नदी के किनारे से घिरे हुए राधाबाग नामक स्थान पर श्री कात्यायनी देवी का पूजन किया।
ऐसे महान सिध्दपीठ का उध्दार क्या कोई साधारण व्यक्ति कर सकता है? जब तक उसे भगवती की कृपा प्राप्त ना हो जाये। भगवती द्वारा नियुक्त पुत्र श्री केशवानन्द जी ने श्री कात्यायनी पीठ का पुनरुध्दार करने हेतु इस पृथ्वी पर जन्म लिया।
कामरूप मठ के स्वामी रामानन्द तीर्थ जी महाराज से दीक्षित होकर कठोर साधना के लिए हिमालय की कंदराओं में गमन किया। साधनान्तर सर्वशक्तिशाली मां के आदेशानुसार वृन्दावन स्थित अज्ञात सिध्दपीठ का उन्होंने पुनरूध्दार कराया। स्वामी केशवानन्द जी महाराज द्वारा 1 फरवरी, 1923 माघी पूर्णिमा के दिन बनारस, बंगाल तथा भारत के विभिन्न सुविख्यात प्रतिष्ठित वैदिक याज्ञिक ब्राह्मणों द्वारा वैष्ण्वीय परम्परा से मंदिर की प्रतिष्ठा का कार्य पूर्ण कराया। मां कात्यायनी की स्वर्ण-प्रतिमा के साथ-साथ पंचानन शिव, विष्णु, सूर्य तथा सिध्दिदाता श्री गणेश जी महाराज (जिनकी बात तो कुछ अलौकिक ही है "जिसने जाना उसने पाया" वाली कहावत चरितार्थ है) की मूर्तियों की भी इस मंदिर में प्रतिष्ठा की गई।
यह एक सिध्पीठ है, यह स्थान रंगजी के बड़े बगीचे के निकट ही है स्थान बहुत बड़ा और रमणीक है मन्दिर में प्रवेश करते ही बाँई ओर श्री केश्वानन्दजी उनके शिष्य की संगमरमर की पाषाण मूर्ति एक कक्ष में विराजमान हैं प्रधान मन्दिर पर सीढियों के दोनों किनारों पर दो शेर प्रत्यक्ष जैसे लगते हैं
राधाबाग मंदिर के अंतर्गत गुरु मंदिर, शंकराचार्य मंदिर, शिव मंदिर तथा सरस्वती मंदिर भी दर्शनीय हैं। यहाँ की अलौकिकता का मुख्य कारण जहां साक्षात मां कात्यायनी सर्वशक्तिस्वरूपणि, दु:खकष्टहारिणी, आल्हादमयी, करुणामयी अपनी अलौकिकता को लिए विराजमान है वहीं पर सिध्दिदाता श्री गणेश जी एवं बगीचा में अर्ध्दनारीश्वर (गौरीशंकर महादेव) एक प्राण दो देह को धारण किये हुए विराजमान हैं। लोग उन्हें देखते ही मन्त्रमुग्ध हो जाते हैं।
शकराचार्य मंदिर में जहां विप्र वटुओं द्वारा वेद ध्वनि से सम्पूर्ण वेद विद्यालय एवं सम्पूर्ण कात्यायनी पीठ का प्रांगण पवित्र हो जाता है, वहीं कात्यायनी पीठ में स्थित औषधालय द्वारा विभिन्न असाध्य रोगियों का सफलतम उपचार तथा मंदिर में स्थित गौशाला में गायों की सेवा पूजा दर्शनीय है। इसके अतिरिक्त यज्ञशाला में वेदोक्तरीति से स्वाहाकार मन्त्रों का श्रवण एवं विभिन्न उपासना पध्दति द्वारा अर्चन को देखकर कोई व्यक्ति स्तम्भित होकर मां के समक्ष पहुंच जाता है और सम्पूर्ण संसार को ही वह पल भर के लिए भूल जाता है। यही मां कात्यायनी की कृपा शक्ति का फल है जो कई बार दर्शन करने के बाद भी उसकी लालसा और जाग्रत होती चली जाती है।
श्री श्री कात्यायनी पीठ वृन्दावन में समयोचित पूजा महोत्सव आदि अनवरत रूप से विधिपूर्वक होते रहते हैं। कार्तिक के महिने में नव्दुर्गे के अवसर पर देवी की विधि-विधान से पूजा, हवन, एवं सैकड़ों कुमारी कन्या-भोजन होता है ऐसा ही कार्यक्रम चेत्र के महिने में रामनवमी के अवसर पर भी होता है
श्री सिद्ध गणेश
श्री श्री कात्यायनी पीठ वृन्दावन में स्थित गणपति महाराज की मूर्ति का भी विचित्र इतिहास है। एक अंग्रेज़ श्री डब्लू॰ आर॰ यूल कलकत्ता में मैसर्स एटलस इंशोरेंस कम्पनी लि॰ जो न॰ 4 क्लाइव रोड पर है, में ईस्टर्न सेक्रेटरी पद पर कार्य करते थे। इनकी पत्नी श्रीमती यूल ने कोई सन 1911 या 1912 में जबकि वह विलायत जा रही थीं, जयपुर से एक गणपति महाराज की मूर्ति ख़रीदी। वह अपने पति को कलकत्ता छोड़कर इंग्लैण्ड चली गईं तथा उन्होंने अपनी बैठक में कारनेस पर गणपति जी की प्रतिमा सजा दी। एक दिन श्रीमती यूल के घर भोज हुआ तथा उनके मित्रगणों ने गणेश जी की प्रतिमा को देखकर उनसे पूछा कि यह क्या है? श्रीमती यूल ने उत्तर दिया कि यह हिन्दुओं का सूंड वाला देवता है। उनके मित्रों ने गणेश जी की मूर्ति को बीच की मेज पर रखकर उपहास करना आरम्भ किया। किसी ने गणेश जी के मुख के पास चम्मच लगाकर पूछा कि इनका मुंह कहां है। जब भोज समाप्त हो गया तब रात्रि में श्रीमती यूल की पुत्री को ज्वर हो गया जो रात्रि को बड़े वेग से बढ़ गया। वह अपने तेज ज्वर में चिल्लाने लगी हाय मेरा सूंड़वाला खिलौना मुझे निगलने आ रहा है। डाक्टरों ने सोचा कि वह विस्मृति में बोल रही है। किन्तु वह रात दिन यही शब्द दोहराती रही एवं अत्यन्त भयभीत हो गयी। श्रीमती यूल ने यह सब वृतांत अपने पति को कलकत्ता लिखकर भेजा। उनकी पुत्री को किसी भी औषधि से लाभ नहीं हुआ। एक दिन यूल ने स्वप्न में देखा कि वह अपने बाग के अतिथिगृह में बैठी है। सूर्यास्त हो रहा है, अचानक एक नम्र पुरुष जिसके घुंघराले बाल, मशाल सी जलती आंख, हाथ में भाला लिए, वृषभ पर सवार बढ़ते हुए अंधकार से उसकी ओर आ रहा है एवं कह रहा है, ' मेरे पुत्र सूंड़ वाले देवता को तत्काल भारत भेज दो अन्यथा मैं तुम्हारे सारे परिवार का नाश कर दूंगा। वह अत्यधिक भयभीत होकर जाग उठी और दूसरे दिन प्रात: ही उन्होंने उस खिलौने को पार्सल बनवाकर पहली डाक से ही अपने पति के पास भारत भेज दिया। जहां वह देवता गार्डन हेंडरसन के कार्यालय में तीन दिन तक रहे। वहां शीघ्र ही कलकत्ता के नर नारियों की सिद्ध गणेश के दर्शनार्थ कार्यालय में भीड़ लग गयी। कार्यालय का सारा कार्य रुक गया। श्री यूल ने अपने अधीन इंश्योरेंस एजेण्ट केदार बाबू से पूछा कि इस देवता का क्या करना चाहिए। अन्त में केदार बाबू गणेश जी को अपने घर 7, अभय चरण मित्र स्ट्रीट ले गए एवं वहां उनकी पूजा शुरु कर दी। तब से सब भक्तों ने केदार बाबू के घर पर जाना आरम्भ कर दिया।
इधर वृन्दावन में स्वामी केशवानन्द जी महाराज कात्यायनी देवी की पंचायतन पूजन विधि से प्रतिष्ठा के लिए सनातन धर्म की पांच प्रमुख मूर्तियों का प्रबन्ध कर रहे थे। श्री श्री कात्यायनी देवी की अष्टधातु से निर्मित मूर्ति कलकत्ता में तैयार हो रही थी तथा भैरव चन्द्रशेखर की मूर्ति जयपुर में बनाई गई थी । जबकि महाराज गणेश जी की प्रतिमा के विषय में विचार कर रहे थे, तभी उन्हें मां का आदेश हुआ कि एक सिद्ध गणेश कलकत्ता में केदार बाबू के घर में हैं। जब तुम कलकता से प्रतिमा लाओगे तब मेरे साथ मेरे पुत्र को भी लाना। अत: जब श्री केशवानन्द जी श्री श्री कात्यायनी मां की अष्टधातु की मूर्ति पसंद करके लाने के लिए कलकत्ता गये तब केदार बाबू ने उनके पास आकर कहा गुरुदेव मैं आपके पास वृन्दावन आने का विचार कर रहा था।
मैं बड़ी विपत्ति में हूं। मेरे पास पिछले कुछ दिनों से एक गणेश जी की प्रतिमा है। प्रतिदिन रात्रि में स्वप्न में वह मुझसे कहते हैं कि जब श्री श्री कात्यायनी मां की मूर्ति वृन्दावन जायेगी तो मुझे भी वहां भेज देना। कृपया आप स्वीकार करें। गुरुदेव ने कहा," बहुत अच्छा तुम वह मूर्ति स्टेशन पर ले आना, मैं तूफान से जाऊँगा। जब मां जायेगी तो उनका पुत्र भी उनके साथ जाएगा।"
अत: जब श्री श्री स्वामी केशवानंद जी महाराज श्री श्री कात्यायनी देवी की अष्टधातु की अत्यन्त ही सुन्दर प्रतिमा लेकर कलकत्ता से वापस आ रहे थे, केदारबाबू ने स्टेशन आकर गुरुदेव को गणेश जी की प्रतिमा दे दी। वह सिद्ध गणेश इन महायोगी द्वारा श्री श्री कात्यायनी पीठ में प्रतिष्ठित किए गए हैं। इनकी स्थापना के कुछ समय बाद से ही इस अद्भुत देवता की कई आश्चर्यजनक घटीं जो कि लिपिबध्द की जाएं तो एक पूरा ग्रन्थ ही बन जाए।

चार-सम्प्रदाय आश्रम
यहाँ पर व्रजविदेही गौड़ीया महान्त माधवदासजी की समाधि है । पास में ही प्राणगोपाल गोस्वामी के शिष्य विद्वान चुड़ामणि श्री कृष्णदास महाराज की मूर्ति है । यहाँ पर प्रतिदिन साधु-सेवा होती है । यह स्थान रंगजी के बड़े बगीचे के निकट है ।
श्री रघुनाथभट्ट गोस्वामी समाधि ( चौष्ठी महान्त समाधि )
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यह मन्दिर श्री गोविन्द देव मन्दिर के सामने श्री रंगलक्ष्मी विद्यालय छात्रावास के पास रास्ते में है । यहाँ पर बहुत से गौरांग भक्तों की पुष्प स्मृति समाधि है परन्तु सेन शिवानन्द तथा श्री रघुनाथभट्ट गोस्वामी की मूल समाधि विराजमान है ।

टटिया स्थान -
यमुना पुलिन तथा राधा बाग के पास यह स्थान है । यह श्री हरिदासजी की शिष्य परम्परा का स्थान है, और स्वामी हरिदासजी के निजमत सिद्धांत को मानने वाले आचार्य एवं शिष्यों का प्रमुख मिलन स्थल है । माथुर ब्राह्मण कुलातर्पन्न श्री रसिक देव जी के शिष्य ललित किशोरी देव जी ने टटिया स्थान की सेवा स्थापना की थी । श्री ललित किशोरी जी पहले हतकाँत के गंगाराम पांड़े चौबे थे,  जन्म 1733 वि0, 1758 वि0, से 1823 वि0, तक गादी पर रहे। यह निधिवन में रहकर अपने गुरु श्री रसिक राय जी की सेवा किया करते थे और इनकी बिहारी जी में अटूट आस्था थी, परन्तु जब  1760 वि0, में निधिबन में गोस्वामियों को बांके बिहारी विग्रह दे देने पर भी कलह बढ़ता गया तब  रसिक देव जी ने इन्हें हरिदास जी का करुवा, गुदड़ी, सुमरनी और 6 संतों की वाणी प्रदान कर निधिवन से जाने का आदेश दिया । गुरूजी के आदेश पर श्री ललित किशोरी जी ने अकिंचन होकर निधिवन का त्याग कर दिया और वहाँ से यमुना तट पर आकर पीपल के नीचे नित्य बिहार स्थल बना बिहारी जी पधराकर बांस की टटियाओं से घिरा टटिया स्थान प्रगट किया । राधाष्टमी में प्रतिवर्ष यहाँ पर बड़ा मेला लगता है ।
श्री ललित किशोरी जी ने भागवत लीला सम्बन्धी सरस पदों की रचना की, जिनकी संख्या लगभग 10 ,000 बताई जाती है । ललित किशोरी जी के 'रास-विलास ', 'अष्टयाम', तथा समय प्रबंधन नामक ग्रन्थ उतम हैं । इनकी भाषा उर्दू, खड़ी बोली, मारवाड़ी मिश्रित ब्रज भाषा है ।
जाके श्री हरिदास सुहाई, ताहि कहा गम है रे भाई,
सो तो अति आनंद में डोले, महा प्रेम भरे वाच्नानी बोले ।
छीन छीन प्रियवर रंग बढ़ावे, कुञ्जबिहारिणी के मन भावे,
श्री ललित किशोरी इह रास भीनी, मिलत मिलत में चाह नवीनी ।।
नैन चकोर, मुखचंद बाँकौ वारि डारौं,
वारि डारौं चित्तहिं मनमोहन चितचोर पै।
प्रानहूँ को वारि डारौं हँसन दसन लाल,
हेरन कुटिलता और लोचन की कोर पैर।
वारि डारौं मनहिं सुअंग अंग स्यामा-स्याम,
महल मिलाप रस रास की झकोर पै।
अतिहिं सुघर बर सोहत त्रिभंगी-लाल,
सरबस वारौं वा ग्रीवा की मरोर पै॥
लजीले, सकुचीले, सरसीले, सुरमीले से,
कटीले और कुटीले, चटकीले मटकीले हैं।
रूप के लुभीले, कजरीले उनमीले, बर-
छीले, तिरछीले से फँसीले औ गँसीले हैं॥
'ललित किसोरी' झमकीले, गरबीले मानौं,
अति ही रसीले, चमकीले औ रँगीले हैं।
छबीले, छकीले, अरु नीले से, नसीले आली,
नैना नंदलाल के नचीले और नुकीले हैं॥
यमुना पुलिन कुंज गह्वर की, कोकिल ह्वै द्रुम कूक मचाऊँ।
पद-पंकज प्रिय लाल मधुप ह्वै, मधुरे-मधुरे गुंज सुनाऊँ॥
कूकुर ह्वै ब्रज बीथिन डोलौं, बचे सीथ रसिकन के पाऊँ।
ललित किसोरी आस यही मम, ब्रज रज तज छिन अनत न जाऊँ॥
मोहन के अति नैन नुकीले।
निकसे जात पार हियरा, के, निरखत निपट गँसीले॥
ना जानौं बेधन अनियन की, तीन लोक तें न्यारी।
ज्यों ज्यों छिदत मिठास हिये में, सुख लागत सुकुमारी॥
जबसों जमुना कूल बिलोक्यो, सब निसि नींद न आवै।
उठत मरोर बंक चितवनियाँ उर उतपात मचावै॥
ललित किसोरी आज मिलै, जहवाँ कुलकानि बिचारौं।
आग लगै यह लाज निगोडी, दृग भरि स्याम निहारौं॥
*****
दोहे:-
सुमन वाटिका-विपिन में, ह्वैहौं कब मैं फूल।
कोमल कर दोउ भावते, धरिहैं बीनि दुकूल॥
कब कालीदह कूल की, ह्वैहौ त्रिबिध समीर।
जुगल अंग-ऍंग लागिहौं, उडिहै नूतन चीर॥
कब कालिंदी कूल की, ह्वैहौं तरुवर डारि।
ललित किसोरी लाडिले, झूलैं झूला डारि॥
ललित किशोरी देव जी टटिया स्थान के संस्थापक थे , और उन्हीं के आशीर्वाद से आज भी इस जगह श्रधालुओं की भीड़ रहती है । उनकी समाधि भी यहीं टटिया स्थान पर है । टटिया स्थान का प्राकृतिक सौन्दर्य बड़ा ही मनोहारी है । यहाँ सब तरफ यमुना की रेत बिछी है । वृक्षों के नीचे जगह-जगह मिटटी के पात्रों में पक्षियों के लिए अनाज के दाने रखे रहते हैं । ऊपर की मंज़िल पर एक छोटा कमरा है जिसमें सींखचे लगे हैं । साथ ही एक छोटा स्नानघर है । इस गद्दी पर मनोनीत आचार्य उसी अकिंचन भाव में युगल सरकार की सेवा करते हैं, जिस अकिंचन भाव में ललित किशोरी देव जी ने इस स्थान की स्थापना की थी । इस गद्दी पर जो भी आचार्य मनोनीत होते हैं, वे एक बार इस कमरे में प्रवेश करने के बाद आजीवन वहीँ रहते हैं, कभी बाहर नहीं आते । उनका शरीर जब शांत हो जाता है तब उन्हीं के द्वारा मनोनीत उनका शिष्य आचार्य की गद्दी संभालता है । गुरु का शव बाहर निकालकर शिष्य को आचार्य घोषित कर दिया जाता है । टटिया स्थान पर आज भी बिजली जैसी आधुनिक सुविधाए उपलब्ध नहीं हैं ।

हम हरी के हरी हमरे प्यारे,
हरी हमरे हित रहत सदाई हम हरी के अति ही सुखारे ।
हम हरी हरी हम केलि निरंतर छीन हु कबहु होत न न्यारे,
हरी हैं कुञ्ज बिहारिणी रानी रसिक शिरोमणि प्राण आधारे ।।



ज्ञान गुदडी

भगवान श्रीकृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियों को उनका संदेश देने वृंदावन आए उद्धवजी का सारा ज्ञान गोपियों के विशुद्ध प्रेम की धारा के समक्ष बौना बनकर एक गुदडी के रूप में बदल गया था। यह स्थान अब ज्ञान गुदडी कहलाता है। इसके निकट बैजयंती श्री जगन्नाथ प्रसाद भक्त्माली स्थान, श्री जगन्नाथ मन्दिर तथा रामबाग इत्यादि दर्शनीय हैं ।
हमहु सब जानति लोक की चालनि, क्यौं इतनौ बतरावति हौ।
हित जामै हमारो बनै सो करौ, सखियाँ तुम मेरी कहावती हौ॥
'हरिचंद जु' जामै न लाभ कछु, हमै बातनि क्यों बहरावति हौ।
सजनी मन हाथ हमारे नहीं, तुम कौन कों का समुझावति हौ॥


ऊधो जू सूधो गहो वह मारग, ज्ञान की तेरे जहाँ गुदरी है।
कोऊ नहीं सिख मानिहै ह्याँ, इक श्याम की प्रीति प्रतीति खरी है॥
ये ब्रजबाला सबै इक सी, 'हरिचंद जु' मण्डलि ही बिगरी है।
एक जो होय तो ज्ञान सिखाइये, कूप ही में इहाँ भाँग परी है॥

गुरुकुल से मथुरा लौटकर श्री कृष्ण ने माता पिता और गोपियों को सांत्वना देने के लिए अपने प्रिय उद्धव को नन्दजी के गोकुल में भेजा था । यथार्थतः भक्त उद्धव विरहताप से दग्ध ह्रदय वाले नन्दबाबा , यशोदा मैया एवं गोपियों को सांत्वना दे ही क्या सकते थे ? यह कृष्ण का बहाना मात्र था । रहस्य की बात तो यह थी कि मथुरा में कोई भी एक ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो गोपियों के विरह में झुलसते हुए कृष्ण को सांत्वना दे सके । सांत्वना की तो बात ही क्या, कृष्ण के भावों को समझने वाला भी कोई न था । इसलिए कृष्ण ने अपने प्रिय उद्धव को इस विषय के लिए योग्य छात्र समझकर ब्रज की उसी पाठशाला में भेजा, जहाँ उन्होंने स्वयं प्रेम का पाठ पढ़ा था और जिस पाठशाला में प्रधान अध्यापिका महाभाव-स्वरुपा राधारानी और ललिता, विशाखा आदि सखियाँ अध्यापिकाएँ थीं । करुणावरुणालय गोपियों ने कृष्ण के भेजे हुए इस छात्र को अपने विद्यालय में प्रवेश प्रदान किया । वहाँ गोपियों ने उद्धव द्वारा तत्त्व-ज्ञान से परिपूर्ण सन्देश को हस्तगत किया और उसे गुदड़ी की भाँति चीर-फाड़कर यमुना के जल में प्रवाहित कर दिया । वह ज्ञानगुदड़ी बहती-बहती प्रयाग में गंगा की धारा में जा गिरी और फिर वहाँ से बहते-बहते लवण समुद्र में मिलकर अपना रहा-सहा अस्तित्व भी खो बैठी । जहाँ गोपियों ने उद्धव के द्वारा लाये हुए तत्त्व-ज्ञान को फटी हुई गुदड़ी की भाँति यमुना में बहा डाला था, वही स्थान आज ज्ञान-गुदड़ी के नाम से प्रसिद्ध है ।



श्रीतुलसीदास राम दर्शन मंदिर
श्रीतुलसीरामदर्शन मंदिर भगवान के भक्त के अधीन होने का अकाट्य प्रमाण है। इसी स्थान पर राम भक्त महाकवि गोस्वामी तुलसीदास को उनकी इच्छा के अनुरुप भगवान् श्रीकृष्ण ने भगवान् श्रीराम बनकर दर्शन दिए थे।  यह घटना श्रीरामगुलेला नामक स्थान पर अवस्थित ठाकुर श्री मदनमोहन जी के मंदिर में हुयी थी । तभी से इसे तुलसी राम दर्शन मंदिर के नाम से जाना जाता है।
जब गोस्वामीजी ठाकुर श्री मदनमोहन जी के दर्शन के लिए मंदिर में पहुंचे तो पुजारी श्री परशुराम ने भगवान् राम को ही अपना इष्ट मानने के गोस्वामीजी के आग्रह के मद्देनजर उनकी साम‌र्थ्य की परीक्षा लेने अथवा उपेक्षा भाव से व्यंग्य में यह टिप्पणी की।
अपने-अपने इष्ट को नमन करें सब कोय।
इष्ट विहीन परशुराम नवैसो निगुराहोय।।
फिर क्या था गोस्वामीजी को बात खल गई। उन्होंने मंद-मंद मुस्कराते हुए मनमोहक छटा बिखेर रहे ठाकुर मदनमोहन जी को निहारा और बोले,
कहा कहौं  छवि आजु की, भले बने हौ नाथ।
तुलसी मस्तक तब नवै, धनुष बान लेऊ हाथ ।। 
भक्त की यह इच्छा, इच्छा ही नहीं बल्कि आदेश भी, जिसे सुनकर  तत्काल ही भगवान श्री मदनमोहन जी यानी श्रीकृष्ण जी ने मुरली को फेंक कर धनुष बाण धारण कर लिया और राम रूप हो गए।
मुरली लकुट दुराय के, धर्यों धनुष सर हाथ।
तुलसी लखि रूचि दासकी, कृष्ण भयेरघुनाथ।।
कित मुरली कित चंद्रिका कित गुपियन को साथ।
अपने जन के कारणे कृष्ण भये रघुनाथ।।
अब यहां भगवान के दोनों रूपों के दर्शन किए जा सकते हैं। श्री मदनमोहन जी के दर्शन के साथ ही विद्युत चालित यंत्र से भगवान् श्री राम की भी बिल्कुल उसी शर चाप धर छवि के दर्शन किए जा सकते हैं। जिससे श्रीकृष्ण ने रामरूप बनकर तुलसीदास जी को कृतार्थ किया था।
इस प्रकार यह परम पावन स्थल है जहां भगवान ने भक्त के आदेश का पालन करने में एक क्षण भी नहीं लगाया। वृंदावन की यात्रा क्या श्री तुलसीराम दर्शन मंदिर के दर्शन के बिना पूरी मानी जा सकती है।
राम बाग
राम बाग ज्ञान गुदड़ी में स्थित है, इसके पास ही श्री राधा ब्रजमोहन मन्दिर तथा तुलसीदास जी की भजन कुटीर भी है । राम बाग की स्थापना श्री संकर्षण दास जी महाराज ने अठारहवीं शताब्दी में की थी । श्री संकर्षण दास जी महाराज एक रामानन्दी साधू थे । राम बाग की सम्पत्ति में :- एक बड़ा उद्यान; एक विशाल सीता राम मंदिर; एक निजी निवास और एक संस्कृत विद्यालय जो की अब परिचालित नहीं है, शामिल हैं । यह स्थान ब्रज के अद्भुत, अर्द्ध परित्यक्त, रहस्यमय स्थानों में से एक है ।


जगन्नाथ मंदिर
आज से दो सौ वर्ष पूर्व, हरिदास:-एक रामानन्दी- वैष्णव और श्री कृष्ण जी के परम भक्त हुए थे । जो की वंशी वट के निकट श्री यमुनाजी के तट पर श्री युगल सरकार का ध्यान किया करते थे । एक रात उन्हें स्वप्न में भगवान् श्री जगन्नाथ जी के दर्शन हुए, तब प्रभु ने इन्हें बताया कि वह बहुत प्रसन्नता से वृन्दवन में यमुना के तट पर रहकर हरिदासजी की पूजा को स्वीकार करना चाहते हैं, साथ ही प्रभु ने हरिदासजी से तुरंत जगन्नाथ पुरी उड़ीसा जाने के लिए कहा, और वहाँ से भगवान् जगन्नाथ जी के विग्रह को जो की इस वर्ष ही बदला जाना था, लेकर वृन्दवन वापस आने को कहा ।

अगली सुबह जागने पर हरिदासजी ने अपने सभी शिष्यों को एकत्रित किया और एक उत्साहपूर्ण कीर्तन के साथ जगन्नाथ पुरी उड़ीसा की पदयात्रा शुरू की । पुरी में पहुंचने पर, हरिदासजी सब से पहले जगन्नाथ मंदिर गए, और वहाँ के पुजारी जी से अनुरोध किया कि उन्हें भगवान जगन्नाथ के पुराने शरीर को वृंदावन ले जाने की अनुमति दें । परन्तु पुजारियों ने दो टूक मना कर दिया और हरिदासजी को सीधे पुरी के राजा से बात करने की सलाह दी, क्यूंकि राजा ही मन्दिर के मुख्य प्रबंधक थे । हरिदासजी का अनुरोध सुनकर राजा ने भी इनकार कर दिया और हरिदासजी को सूचित किया कि जगन्नाथजी के पुराने शरीर को प्राचीन प्रथा के अनुसार समाधि दी जाएगी और किसी को भी पुराने विग्रह पर आधिपत्य स्थापित करने की अनुमति नहीं है ।
राजा से इंकार सुनने के बाद, हरिदासजी ने समुद्र तट पर जाकर मृत्यु पर्यन्त व्रत करने का फैसला किया, उस रात राजा को एक सपना आया जिसमें उसे भगवान जगन्नाथ बहुत क्रोधित नजर आए, और उन्होंने राजा से प्रश्न किया कि क्यों राजा ने प्रभु के भक्त हरिदास को स्वयं प्रभु के द्वारा दिए गए आदेश का पालन करने से इंकार कर दिया ।
जागने पर राजा ने हरिदास जी को बुलाकर अपने सपने के बारे में बताया, और हरिदासजी को भगवान् के पुराने विग्रह को ले जाने की अनुमति दे दी । फिर हरिदासजी ने प्रभु के श्री विग्रहों:- श्री जगन्नाथ जी, सुभद्रा जी और बलभद्र जी को रथ पर विराजमान कराया, और साथ में पुजारियों और सैनिकों की एक बड़ी टुकड़ी को लेकर वृंदावन वापस आ गए । वृन्दवन आने के बाद भगवान् जगन्नाथ जी को यमुना के तट पर स्थापित किया गया । यह वही जगह है, जो तब से अब तक जगन्नाथ घाट के रूप में जानी जाती है ।
( श्री जगन्नाथ पुरी उड़ीसा में हर 8,11 और 19वर्षों में एक बार जब आषाढ़ मास में अधिकमास होता है, उस वर्ष रथयात्रा–उत्सव के साथ एक नया महोत्सव और भी होता है, जिसे 'नवकलेवर उत्सव' कहते हैं। इस उत्सव पर भगवान जगन्नाथ अपना पुराना कलेवर त्यागकर नया कलेवर धारण करते हैं। अर्थात नीम की लकड़ियों की नयी मूर्तियाँ बनाई जाती हैं तथा पुरानी मूर्तियों को मन्दिर परिसर में ही कोयली वैकुण्ठ नामक स्थान पर भू - समाधि दे दी जाती है। )

सुदामा कुटी

यह स्थान वृन्दावन के परिक्रमा रास्ते में तथा वंशीवट के निकट है । यह अयोध्या रामानंदी साधुओं का विरक्त आश्रम है । यहाँ पर रामायण, सत्संग तथा साधुओं की सेवा सुचारू रूप से चली आ रही है । रमा पद्धत्ति रामानुज, श्री रामानुज " उदार सुधानिधि अवनि कल्पतरु ।

वंशीवट


 
अमल प्रमाण श्रीमद्भागवत में वर्णित प्रसिद्ध राधाकृष्ण युगल की सखियों के साथ रासलीला की प्रसिद्ध स्थली यही वंशीवट है । गोप कुमारियों की कात्यायनी-पूजा का फल प्रदान करने के लिए रसिक बिहारी श्री कृष्ण ने जो वरदान दिया था, उसे पूर्ण करने के लिए उन्होंने अपनी मधुर वेणु पर मधुर तान छेड़ दी । जिसे सुनकर गोपियाँ प्रेमोन्मत्त होकर आधी रात में यहाँ पर उपस्थित हुईं ।

निशम्य गीतं तदनंगवर्धनं व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीत्मानसाः ।
आजग्मुर न्योन्यमलक्षितोद्यमाः स यत्र कान्तो जवलोल कुण्डलाः ॥ (श्रीमद्भा. १०/२९/)

रसिकेन्द्रशेखर श्री कृष्ण ने अपने प्रति समर्पित गोपियों को स्त्री धर्म के बहाने से अपने पतियों की सेवा के लिए उनके घरों में लौटने की बहुत सी युक्तियाँ दीं किन्तु विदग्ध गोपियों ने उनकी सारी युक्तियों का सहज रूप में ही खण्डन कर दिया जिसके बाद शतकोटि गोपियों के साथ यहीं पर शारदीय रास आरम्भ हुआ दो-दो गोपियों के बीच में एक कृष्ण अथवा दो कृष्ण के बीच में एक-एक गोपी इस प्रकार विचित्र नृत्य और गीतयुक्त रास हो ही रहा था कि अन्यान्य गोपियों को सौभाग्यमद और श्रीमती राधिकाजी को मान हो गया इसे देखकर रसिकशेखर श्री कृष्ण श्रीमती राधिकाजी का मान प्रसाधन तथा अन्यान्य गोपियों के सौभाग्यमद को दूर करने के लिए यहीं से अन्तर्धान हो गए पुनः विरहिणी गोपियों ने 'जयतितेऽधिकम्....' विरह गीत को रोते-रोते उच्च स्वर से गायन किया, जिसे सुनकर कृष्ण यहीं पर प्रकट हुए यहीं पर श्री कृष्ण ने मधुर शब्दों से गोपियों के प्रति कृतज्ञता प्रकट की थी कि मेरे लिए अपना सर्वस्व त्याग करने का तुम्हारा अवदान है मैं इसके लिए तुम्हारा चिरऋणी हूँ, जिसे मैं कभी भी नहीं चूका सकता
न पारयेऽहं नीरवद्यसंयुजां स्वासधुकृत्यं विबुधायुषमि वः ।
या माभजन् दुर्जरग्रहश्रृंखलाः संवृश्च्य तद् वः प्रतियातु साधुरा ॥ (श्रीमद्भा. १०/३२/२२)
यह रासलीला स्थली सब लीलाओं की चूड़ामणि स्थली स्वरुप है ।
श्री वज्रनाभ महाराज ने इस रासस्थली में स्मृति के लिए जिस वृक्ष का रोपण किया था, कालान्तर में वह स्थान यमुना जी में आप्लावित हो गया । साढ़े पांच सौ वर्ष पूर्व श्रीगदाधरपण्डित के शिष्य श्रीमधुपण्डित ने उसी वृक्ष की एक शाखा लेकर इस स्थान में गाढ़ दी थी । जिससे वह शाखा प्रकाण्ड वृक्ष के रूप में परिणत हो गई । यहीं पर भजन करते हुए श्रीमधुपण्डित ने ठाकुर श्री गोपीनाथजी को प्राप्त किया था । इस समय वंशीवट के चारों कोनों में चार छोटे-छोटे मंदिर हैं । उनमें क्रमशः श्री रामानुजाचार्य, श्री माध्वाचार्य, श्री विष्णुस्वामी एवं श्री निम्बार्काचार्य की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं । आजकल इन मूर्तियों के बदले कुछ दूसरी मूर्तियाँ भी यहाँ प्रविष्ट हो गई हैं । पहले इस स्थान में गौड़ीय वैष्णव सेवा करते थे । बाद में ग्वालियर राजा के गुरु ब्रह्मचारीजी ने इस स्थान को क्रय कर लिया । अतः तब से यह स्थान निम्बार्क सम्प्रदाय के अन्तर्गत हो गया है ।
इस स्थान पर अब स्मृति में नया वट वृक्ष तथा रास बिहारी चित्र अंकित है । सन्निकट में श्री वल्लभाचार्य ( महाप्रभु ) की बैठक तथा प्रभुदत्त ब्रह्मचारी का आश्रम है ।

रतलाम कुञ्ज
प्राचीन समय में ठाकुर श्री कुञ्जबिहारी लाल की सेवा संत लोग लता पताओं में रह करके किया करते थे । महाराजा रतलाम ( मध्य प्रदेश ) वृन्दावन में यात्रा हेतु पधारे । जब उनकी मनोकामना पूर्ति हुई तो महाराजा ने इस मन्दिर का निर्माण करवाया है ।

छब्बिरानी कुञ्ज
करीब 300 साल पहले छब्बिरानी एक मारवाड़ी विधवा भक्त थी । उन्होंने भजन के लिए इस मन्दिर का निर्माण करवाया । मन्दिर के पास काफी जायदाद भी है । इसमें ठाकुर श्री आनन्द मोहन बिहारी विराजमान हैं ।

टिकारी मन्दिर
टिकारी मन्दिर परिक्रमा मार्ग में है । बिहार के (गया ज़िला) अन्तर्गत टीकरी नामक राज्य के राजा हितकाम ठाकुर की रानी इन्द्रजीत कुमारी ने वृन्दावन भूमि से प्रभावित होकर भजन के लिए इस भव्य व विशाल मन्दिर का सन 1871 ई० में निर्माण करवाया था । पक्काघाट में बनवाए गये इस मन्दिर का शिलान्यास निम्बार्काचार्य श्री गोपेष्वर शरण देवाचार्य जी महाराज ने किया था । द्वार पर सुन्दर शिल्प सौंदर्य देखने योग्य है । मन्दिर में राधाकृष्ण, राधागोपाल तथा लड्डू गोपाल ये तीन विग्रह विराजमान हैं। यह मन्दिर अतिथि-सेवा के लिए प्रसिद्ध था।
लालाबाबू मन्दिर
श्री लालाबाबू पूर्वी बंगाल के एक प्रसिद्ध वैभव सम्पन्न जमींदार थे। प्रचलित बात यह है कि जब लालाबाबू कलकत्ता में रहते थे तब गंगा स्नान को जाते थे, इसलिए एक दिन उनकी कन्या ने कहा कि बाबा " वेला गेल " अर्थात समय हो गया नहाने जाओ, सन्ध्या के समय जब वे नदी के दूसरे तट पर टहल रहे थे तो उन्हें एक माँझी (मल्लाह) की उक्ति सुनाई पड़ी,'अरे भाई ! दिन गेलो पार चल।' अर्थात दिन पार हो गया उस पार चलो। माँझी की बात सुनते ही ये विचार में मग्न हो गये। नौका से नदी पार कर घर लौटे। दूसरे दिन वहीं टहलते समय एक धोबी ने अपनी पत्नी को सम्बोधित करते हुए कहा, 'दिन गेलो वासनाय आगुन दाऊ।' (धोबी लोग कपड़े धोने के लिए केले के वृक्षादि जलाकर एक प्रकार का क्षार-सा बनाया करते थे, जिसे बंगला भाषा में वासना कहा जाता है) लालाबाबू ने उसके इस वाक्य का अर्थ यह ग्रहण किया कि दिन बीत गया, जीवन के दिन निकल गये। अपनी काम वासना में शीघ्र आग लगा दो। श्रीलालाबाबू के जीवन पर उनकी कन्या, माँझी और धोबी के वाक्यों का गहरा प्रभाव पड़ा। वे अपना सारा वैभव, परिवार इत्यादि सब कुछ परित्याग कर वृन्दावन में चले आये तथा यहाँ भजन करने लगे। इन भक्त लालाबाबू ने ही 1810 ई॰ में श्रीकृष्णचन्द्र नामक इस विग्रह की स्थापना की थी। पत्थर का यह मन्दिर बहुत ही भव्य और दर्शन योग्य है। मृत्यु समय आने पर इन्होने कहा कि हमें पूज्य किसी के कन्धों पर नहीं लाना, पांवों में रस्सी बांधकर रास्ते की रज में खींचकर यमुना में डाल देना, शेष वेसा ही हुआ ।

भजनाश्रम

वृंदावन के पत्थरपुरा इलाके में इस आश्रम की स्थापना 1914 में जानकीदास पटोरिया नाम के सेठ ने की थी । ‘भगवान भजनाश्रम’ नाम के इस आश्रम की स्थापना बंगाली बाइयों को अनैतिक काम में पड़ने से रोकने और जीवन यापन की व्यवस्था करने जैसे पवित्र उद्देश्य को लेकर की गई थी । विधवाओं के नाम पर आने वाली दान राशी की  नाम मात्र की पूंजी से खड़े किए गये भजनाश्रम को  अरबों रूपये  का बना दिया गया  है । वृंदावन के अलावा मथुरा, गोवर्धन, बरसाना, राधाकुंड, गोकुल आदि स्थानों पर भजनाश्रम की शाखाऐं जड़ जमा चुकी हैं और चित्रकूट के पास नवद्वीप और बंबई में भी आश्रम की अथाह संपति है । दूसरी ओर भजन करने वाली बाइयों की हालत इतनी दयनीय है कि पत्थर भी पिघल जाए ।
आठ घंटे मजीरे पीट-पीट कर मुक्त कंठ से ‘हरे राम हरे राम राम हरे हरे’ का उद्घोषण करने के बाद एक बाई को ढाई सौ ग्राम चावल, पचास ग्राम दाल  और दो रुपए की आश्रम से  राजसी मुद्रा मिलती है ।
इंसान का वर्तमान जितना कष्टप्रद और असुरक्षित हो, भविष्य की असुरक्षा का भय उसे उतना ही सताता है । सतरह साल की जवान बाई से लेकर अस्सी साल की लाठी के बल पर चलने वाली या सड़क पर घिसटने वाली विकलांग बाई तक सभी ढ़ाई सौ ग्राम चावल और पचास ग्राम दाल पेट  में झोंक कर जिंदा रहतीं हैं और दो रुपए बचा लेती हैं । सेवा कुंज, मदन मोहन का घेरा और गोविंद जी के घेरे में बनी कभी भी गिरने वाली अंधेरी, सीलन भरी और बदबूदार कोठरियों में सात-सात, आठ-आठ की संख्या में ठुसी बाइयां अपनी अमूल्य निधि ‘एक रुपए’ को रखने का सुरक्षित स्थान नहीं ढूंढ़ पाती । वे आश्रम के बाबूओं के पास ब्याज के लालच में इस रकम को जमा कराती रहती हैं । बाइयों के आगे-पीछे कोई होता नहीं, सो बाई के मरने बाद उसका धन भी छूट जाता है । अनेक बाइयां वृंदावन पलायन करते समय साथ में लाई हुई पूंजी भी ब्याज पर उठा देती हैं । शाम के वक्त वृंदावन के  मंदिरों के आगे इन्हीं बाइयों को भिक्षावृति करते देखा जा सकता है । इस भिक्षावृति के पीछे संचय की प्रवृति भी है ।
बाईयॉं सुबह 10 बजे जब भजनाश्रम से अपनी कोठरियों की ओर कूच करती है तो रास्ते में पड़े झूठे पत्ते उन्हें आगे बढ़ने नहीं देते । अस्थिपंजर बने रुग्ण शरीर उन्हें चाटने लगते हैं । बाइयों को आश्रम के कर्मचारी भी प्रताड़ित करने से पीछे नहीं रहते । एक बार एक बुढ़िया बाई को आश्रम की सीढ़ियों से केवल इसलिए धकिया दिया गया कि वह भजन के लिए कुछ देर से आई थी ।
 रक्तरंजित बाई मिन्नतों और गिड़गिड़ा ने के बाद भी आश्रम में प्रवेश न पा सकी। उस दिन उसे बिना चावल के ही गुजारा करना पड़ा । अमानवीयता और अत्याचार की मिली जुली संस्कृति ने आश्रम के प्रति बंधुआ मजदूरों का सा भय और आंतक इन निरपराध बाइयों के मन में भर दिया है । आश्रम के कर्मचारियों के घरों का काम, सफाई, झूठे बर्तन साफ करना आदि भी इन्हीं बाइयों से लिया जाता है । इसके लिए उसे अतिरिक्त पैसा नहीं मिलता । ‘भजनाश्रम’ के पास अपना एक आयुर्वेद संस्थान भी है जिसमें करीब चालीस दवाएं बनती हैं । दवाओं के कूटने, शीशियों में भरने और पैकिंग करने आदि का काम इन्हीं बाइयों से लिया जाता है ।
समूचे देश के दानदाता भजनाश्रम की बाइयों के लिए हजारों रुपए के हिसाब से भेज रहे हैं । इसके अलावा सावन और फागुन के महीने में मारवाड़ी लोग वृंदावन आते हैं तो हजारों की रकम आश्रम को दान कर जाते हैं और  कंबल, रजाई आदि बांटने के लिए दे जाते हैं । बीस साल से वृंदावन में रह रही दो बाइयों ने बताया कि उन्हें आज तक कोई रजाई या कंबल नहीं दिया गया । वृंदावन में स्थित फोगला आश्रम भी भजनाश्रम की एक शाखा है । साल में चार महीने इस आश्रम में रोजाना चलने वाली रासलीला में हजारों श्रद्धालु इकट्ठा होते हैं । आयोजक घड़े लेकर रासलीला के खत्म होने पर चढ़ावे के लिए जनता के बीच निकलते हैं । कहते हैं करीब तीस-चालीस हजार की रकम रोजाना इकट्ठी हो जाती है । फोगला आश्रम के अतिरिक्त भजनाश्रम की दो बड़ी-बड़ी इमारतें और भी हैं-- खेतावत भवन और वैश्य भवन । इन भवनों में बने आलीशान कमरे दानदाता सेठों के आने पर ही खुलते हैं लेकिन प्रचारित यह किया जाता है कि यह भवन बाइयों के लिए बनाए गए हैं ।
एक धर्मिक नगर में लोग बाइयों के हक में आवाज उठाने को तैयार नहीं है । महानगरों में नारी-शोषण के खिलाफ प्रदर्शन होना एक आम बात है । लेकिन वृंदावन की बाइयों के हक की आवाज उठाने की सुध् किसी को नहीं है  । वृंदावन की बाइयों की व्यथा पर कथा लिखने वालों की कमी नहीं रही। समय-समय पर देशी-विदेशी कैमरे इन बाइयों के चित्र उतारते रहते हैं । सामाजिक संगठन इनकी दुर्दशा पर कभी-कभी चर्चा भी करते देखे गए हैं लेकिन स्वर्ग की आस में नरक जैसा जीवन जीने वाली बेसहारा औरतों को सहारा देने वाला कोई नहीं ।

ब्रह्म कुण्ड :
ज्ञान गुदड़ी से कुछ दक्षिण-पश्चिम की ओर ब्रह्म कुण्ड है । जब ब्रह्मा जी ने गौवत्स एवं ग्वालवालों का अपहरण किया था, तब प्रभु ने उतने ही गौवत्स एवं ग्वालवालों का रूप लेकरके उने प्रकट कर दिया था । उसी अपराध से मुक्ति पाने के लिये ब्रह्मा जी ने यहाँ श्री कृष्ण जी का पवित्र मंत्रो के साथ अभिषेक किया एवं उनकी स्तुति की थी । श्री कृष्ण जी के अभिषेक का पवित्र जल ही ब्रह्म कुण्ड है।


 

9 comments:

Varun said...

Very Fine Collection !!
dandavat !! :) :)

Varun said...

Hare Krisna !!
Very Fine Collection !!
Pls Add More !!
Dandavat !! _/\o_

Anonymous said...

जानकारी के लिए आपको धन्यवाद और आज 2011 वर्ष पुरा हो रहा है आपको हार्दिक शुभकामना 2012 के लिए सभी भारतवासियो को भी

Unknown said...

jai bihari lal ki ......
every sentence with full of bankey bihari amrit .....

anju said...

KANUPRIYA KI PAWAN NAGRI ME BAIYO KI DURDASHA KA SUN KAR EK BAAR TO MAN-MASTISHK BHI SUNN SE HO GAY KISHORI JU SE KARBADH PRARTHNA HAI KI SUB KI CHETNA ME YEH CHETNA DE KI SUB SUB KA BHALA KAR SAKE//BHALA INKA HUQ HI IN TAK PAHUNCHANE WALE KAB TAK UNKA HAQ MARENGE KABHU TO DINDYAL K BHANAK PREGI KAAN".HUM SUB KI BHUDHI KO IN MATRI ROOPA DEVIO K HIT KA CHINTAN OR KARY KARE..

CA. Puneet Garg said...

adutiya vivechan kiya gaya hai vrindavan dham ka......jai shre radhe

drdeepak said...

साधु साधु। अति उत्तम

Unknown said...

Aseam ANANT ka darshan .KA BAKHANUHU VA CHHAVI KO------

Unknown said...

Aseam ANANT ka darshan .KA BAKHANUHU VA CHHAVI KO------